SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११३ १३० इन चार बातोंपर सदा इनका अधिक अधिकार है, आचार है, व्यवहार है, व्यापार है, आहार है । मनके विचारों पर अहो ! सत्ता जमाना चाहते, अपने पुराने रङ्गकी सरिता बहाना चाहते । १३१ शुभ न्यायके ही हेत पंचोंकी यहाँ सृष्टि हुई, परिणाम है विपरीत अब अन्यायकी वृष्टि हुई । ये मानवोचित कार्य में भी पाप बतलाते हमें, हां ! रातमें भी सूर्यका सन्ताप घतलाते हमें । १३२ करते हुये भी पाप इनके साथमें चलते रहो, हँसते रहो, मिलते रहो, नित हाथ पग मलते रहो । यदि चापलूसीमें जरा भी जायंगी रह गलतियां, उड़ जायंगी तत्काल ही फिर तो तुम्हारी धज्जियां । पञ्चायतें । कोई दिवस पंचायतों का विश्व बीच महत्व था, तब मानवों में भी परस्पर एक दिन एकत्व था । वे न करतीं थीं कभी भी खून विश्रुत सत्यका, पथ पुष्ट वे करतीं न थीं अन्याय और असत्यका । ८
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy