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________________ पदवी मिले किस भांति हमको यत्न वे करते रहें, वे साहबोंके पद-कमलमें पएडियाँ धरते रहें। निज भक्ति दिखलाते हुये यो गारडन पार्टी करें, करते हुये ये कृत्य सब नहिं ईशसे मनमें डरें। १०० उनके मनोहर कण्ठमें मणि मोतियोंका हार है, सम्पत्तिवालोंका अहो ! साथी सकल संसार है । कहते किसे जातीयता है द्रव्यका उपयोग क्या ? परलोकमें भी जायंगे ये भोग या उपभोग क्या ? १०१ वंसी बजाते हैं. यहां वे सर्वदा आरामकी, कोई नहीं मर्याद उनके दीर्घतर विश्रामकी । निज़ कार्य करनेमें उन्हें होता प्रचुर संकोच है, सम्पत्तिवालोंकी दशापर आज जगको सोच है। १०२ चाहें कहीं श्रीमान तो वे क्या न कर सकते कहो? निज़ जातिका दारिद्रय सब इस काल हर सकते अहो! पर कौन झंझटमें पड़े किसको यहांपर की पड़ी, उनके निकटमें तो सदा अज्ञानता देवी खड़ी।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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