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________________ ८५ कारण से निकले हैं। इस कारण से दिगम्बर और श्वेताम्बर 'आस्था' में एक दूसरे से दूर दिखने लगे हैं। (1x) अत्यंत विस्तृत प्राचार शास्त्र: नियमानुनियम विस्तार इतना अधिक हो गया है कि यह जानना कठिन हो गया है कि कहाँ से आरम्म-करे और कहाँ समाप्त करे। गाना, बजाना, नाचना, मकान बनाना, नहाना-धोना, फल फूल खाना व तोड़ना, भ्रमण, व्यायाम आदि जीव-हिंसा में शुमार होने लगे तथा आत्म-विकृति का रूप माने जाने लगे । प्रत्येक क्रिया-कलाप में जीव-हिसा का प्रश्न खड़ा कर देने से जनसाधारण तग आ गए। (x) दब्बू श्रावकवर्ग: एक समय ऐसा आया कि शास्त्र पठनपाठन केवल जैन मुनियो का कार्य बन कर रह गया । जैन 'गृहस्थ' (श्रावक) केवल तहत वचन महाराज (मुनि महाराज जो कथन कहते हैं वह सर्वथा सत्य है) कहने वाला एक ज्ञानहीन तथा शक्तिहीन वर्ग बन कर रह गया। इन श्रावको का मुख्य कर्त्तव्य अपने 'गच्छ' (टोले) के गुरु या आचार्य के बताए हुए मार्ग पर चलना था और अपनी परम्परा के अतिरिक्त जैनो की शेष आचार्य परम्परामो को गलत मानना और इशारा पाते ही उनका विरोध भी करना था। अगर खोज-बीन की जाये तो कहना पडेगा कि वैज्ञानिक युग से पूर्व (आज से सौ डेढ सौ वर्ष पहले) श्रावक 'भेड बकरी' के समान था जिसके हृदय और पीठ पर अपने गच्छ के प्राचार्य की छाप लगी हुई थी, जिससे बलात् उसे अपने साम्प्रदायिक पिजडे की सीमा के अन्दर ही रहना पडता था। इस प्रकार 'पृथक्करण नीति' से जैन धर्म को असीम क्षति पहची।
SR No.010210
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShadilal Jain
PublisherAdishwar Jain
Publication Year
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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