SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मध्याव 11(क)| जैन धर्म का ह्रास-कारण विश्व की प्रत्येक प्रवृत्ति को, प्रत्येक विचारधारा को उतारचढ़ाव से दो चार होना पड़ता है। कोई भी प्रवृत्ति सदा के लिये उन्नति या अवनति के बिंदु पर अवस्थित नहीं रह सकती। विक्रम की नवी-दशमी शताब्दी में स्थितियो में परिवर्तन आने लगा। फलतः जैन धर्म के विकास मार्ग में अनेक बाधाएं पा उपस्थित हुयीं, जिसके कारण वह अवनति की ओर अग्रसर हुमा । नीचे ह्रास के कुछेक कारणों का उल्लेख किया जाता है:(i) प्रांतरिक पवित्रता और शक्ति की कमी व बाह्यकर्म काण्डों को प्रचुरता:तालाब मे भारी पत्थर फेंकने से सशक्त जलतरंगे उठती हैं परन्तु किनारों के पास आते आते वे कमजोर पड़ जाती हैं। इसी प्रकार समय बीतने पर जैन धर्मानुयायी धर्माचरण में शिथिल होते गये। परिणामतः धर्म का स्थान दिखावे ने ले लिया । बाहरी कर्मकाण्ड को ही धर्म मान लिया गया। (ii) व्यक्तिवादी मनोवृत्ति: दूसरों की हानि से, विपत्ति से मुझे क्या वास्ता ? मैं दूसरों के लिये क्यों कर्म बांधू। 'पराई तुझे क्या पड़ी अपनी निबेड़ तू' । इस प्रकार के 'एकान्तिक निवत्तिवादी चिन्तन' ने धर्म के सामाजिक रूप को बड़ी हानि पहुँचाई । कुछ लोगो का विचार है कि वस्तुतः इस 'व्यक्तिवादी मनोवृत्ति' की जड़ हमारे उन सैद्धांतिक विचारो में पाई
SR No.010210
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShadilal Jain
PublisherAdishwar Jain
Publication Year
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy