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________________ प्राप्ति तभी सम्भव है जब मिथ्या विश्वास पूर्णतः दूर हो जाये। इस बौद्धिक आधार-शिला पर ही अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, प्रपरिग्रह के बल से सम्यक चरित्र को प्रतिष्ठित किया जा सकता है।" जैन धर्म का प्राचार शास्त्र भी जनतन्त्रवादी भावनामो से अनुप्राणित है । जन्मत: सभी व्यक्ति समान हैं और प्रत्येक व्यक्ति अपनी सामर्थ्य और रुचि के अनुसार गृहस्थ या मुनि हो सकता है। अपरिग्रह सम्बंधी जैन धारणा भी विशेषत: उल्लेखनीय है । प्राज इस पर अधिकाधिक बल देने की तथा इसे आचरण में लाने की आवश्यकता है, जैसा कि प्राचीन काल के जैन विचारकों ने किया था। 'परिमित परिग्रह' -- उनका आदर्श वाक्य था । 'सम्भवतः भारतीय आकाश में समाजवादी समाज के विचारो का यह प्रथम उद्घोष था' (vii) प्रत्येक आत्मा में अनत शक्ति के विकास की क्षमता, मात्मिक समानता, क्षमा, मैत्री, विचारो का भनाग्रह आदि के बीज जैन धर्म ने बोये थे। महात्मा गाधी का निमित्त पा वे केवल भारत के ही नहीं, विश्व की राजनीति के क्षेत्र में भी पल्लवित हो रहे हैं । (viii) जैन धर्म पहले बिहार प्रात मे पल्लवित हुआ । कालक्रम से वह बगाल, उडीसा, उत्तर-दक्षिण भारत, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रांत और राजपूताना में फैला । विक्रम को सहस्राब्दी के पश्चात शव, लिंगायत, वैष्णव आदि वैदिक सम्प्रदायो के प्रबल विरोध के कारण जैन धर्म का प्रभाव सीमित हो गया । अनुयायियों की अल्प संख्या होने पर भी जैन धर्म का सैद्धातिक प्रभाव भारतीय चेतना पर व्याप्त रहा। बीच-बीच में प्रभावशाली जैनाचार्य उसे उदबुद्ध करते रहे। विक्रम की बारहवी शताब्दी मे गुजरात का वातावरण जैन धर्म से प्रभावित था। (1x) गुर्जर नरेश 'जयसिंह' और 'कुमार पाल' ने जैन धर्म को बहुत ही प्रश्रय दिया। कुमार पाल का जीवन जैन-आचार का प्रतीक बन गया।
SR No.010210
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShadilal Jain
PublisherAdishwar Jain
Publication Year
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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