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________________ अध्याय यति और व्रात्य दो क्रांतिकारी ऋग्वेद में मुनियों के अतिरिक्त यतियो का उल्लेख भी बहतायत से मिलता है। जैन आगमों (शास्त्रो) में 'यति' का वर्णन जगह-जगह पर पाया है जो आज तक प्रचलित है । प्रारम्भ में ऋषि-मुनियो और यतियों के बीच तालमेल रहा और समाज में वे विशेष रूप से पूजे जाते रहे। यति को काम-क्रोध रहित संयतचित्त व वीतराग कहा गया है। बाहरी क्रिया-काण्ड उन्हे पसन्द नही है । ___ अथर्ववेद के पन्द्रहवे अध्याय में 'व्रात्यो' का विशेष वर्णन आया है वे अपने समय की प्राकृत भाषा बोल सकते थे। 'व्रात्य' वैदिक विधि से 'अदीक्षित व सस्कारहीन' विशेषणो से उपयुक्त होते थे। वे ज्याहृद (प्रत्यचा रहित धनुष) धारण करते थे। मनुस्मृति में लिच्छवि, नाथ, मल्ल आदि क्षत्रिय जातियो को व्रात्यो मे गिना गया है । यदि सूक्ष्मता से विचार किया जाये तो परिणाम यह निकलता है कि 'व्रात्य' भी श्रमण परम्परा के साधु व गृहस्थ थे। जैन धर्म के मुख्य पाँच नियमों-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह को व्रत कहा गया है। उन्हे ग्रहण करने वाले श्रावक 'देश विरती या अणुव्रती' और मुनि महाव्रती कहलाते हैं। जो श्रावक विधिवत् 'व्रत' ग्रहण नहीं करते, तथापि धर्म में श्रद्धा रखते हैं वे अविरत सम्यग्दृष्टि कहे जाते है। इसी प्रकार के व्रतधारी 'व्रात्य' कहे गये, ऐसा प्रतीत होता है। क्योंकि वे हिंसा तथा यज्ञ-विधियों के नियम से त्यागी होते
SR No.010210
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShadilal Jain
PublisherAdishwar Jain
Publication Year
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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