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________________ अध्याय 12 जैन धर्म शास्त्र-दिगम्बर जन समाज की मान्यता दिगम्बर जैन समाज की धारणा धर्म-शास्त्रों के बारे में इस प्रकार है: 'दृष्टिवाद अंग' के 'पूर्वगत' ग्रथ का कुछ अंश ईस्वी प्रारम्भिक शताब्दी में श्री धरसेन' प्राचार्य को ज्ञात था। उन्होने देखा कि यदि वह शेष अंश भी लिपिवद्ध नहीं किया गया तो भगवान महावीर की वाणी का सर्वथा लोप हो जायेगा। फलत: उन्होंने 'पुष्प दंत' और 'भूतवलि' जैसे मेघावी मुनियों को बुलाकर गिरिनार पर्वत की चद्रगुफा में उसे लिपिबद्ध कर दिया। उन दोनों विद्वान मुनियों ने उस लिपिवद्ध श्र तज्ञान को ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन सर्वसंध के समक्ष उपस्थित किया था। वह पवित्र दिन 'श्र तपंचमी' के नाम से प्रसिद्ध है और साहित्योद्धार का प्रेरक कारण बन रहा है। बारहवां अंग दृष्टिवाद विच्छेद हो चुका है जिसके पांच भाग 1. परिक्रम 2. सूत्र 3. प्रथमानुयोग 4. पूर्वगत 5. चूलिका थे। 'पूर्वगत' ही चौदह-पूर्व के शब्द ज्ञान से विख्यात था। 'पूर्वो' में सारा श्रु तज्ञान समा जाता है किन्तु साधारण बुद्धि वाले उसे पढ़ नही सकते। उनके लिये 'द्वादशागी' की रचना की गई। भूतबलि और पुष्पदत ने आचार्य धरसेन से श्रुताभ्यास करने के पश्चात प्राकृत भाषा में, गद्य में जिस अद्वितीय ग्रथ को रचना की
SR No.010210
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShadilal Jain
PublisherAdishwar Jain
Publication Year
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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