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________________ जैन भजन तरंगनी। तत्वोंका उपदेश सुना जगमें सतका पर्काश किया ॥३॥ दूर हटाकर आलश को पुरुपास्थ करना बतलाया । मैत्रि प्रेम दया सबही जीवन पर करना सिखलाया ॥ ४ ॥ है यह जीव स्वतंत्र अनादि जब खुद को लख पाता है। करम काटकरके आतम से परमातम बन जाता है ॥ ५ ॥ है तुही सत हित उपदेशी सत्य सदा तेरी बाणी। न्यामत महिमा देख आपकी बन गया सम्यक श्रद्धानी ६।। २-अध्यातम (वहदानियत ) (चाल) खुदाया कैसो मुसीवतों में यह ताज वाले पड़े हुए हैं। खुदा को ढूंडा कहीं कहीं पर खुदा को लेकिन कहीं न पाया। जो खूब देखा तो यार आखिर खुदा को हमने यहीं पे पाया| नमसजिदों में न मंदिरों में समंदरों में न कंदरों में ॥ . छुपा हुवा था हमारे अंदर हमी ने ढूंडा हमी ने पाया ।। २ ॥ अरब में कहते हैं रूह जिसको उसीको आतम यह हिंदवाले ॥ जिनेन्द्र ईश्वर है गोड वह ही फरक ज़रा भी कहीं न पाया३ ।। मतों के धोके में आके यूंही जगत में लड़लड़ के मर रहे हैं। भरमका परदा हटा के देखा तो एक नकशा सभी में पाया ४॥ है सच्चिदानन्द रूप जिसका है ज्ञान दर्शन संरूप जिसका। वही तो तू है बिचार न्यामत कि जिसने ढूंडा उसी ने पाया।
SR No.010209
Book TitleJain Bhajan Tarangani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyamatsinh Jaini
PublisherNyamatsinh Jaini
Publication Year
Total Pages39
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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