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________________ - - - - - । ईनसां की असल क्या नहीं सुरपति से डरेंगे ॥ २॥ अय न्यायमत सब जीव हैं कर्मों के फंद में। अहमेन्द्र और धनेन्द्र सभी वश में करेंगे ॥३॥ AND - - - - - -- तर्ज ॥ मामूर हूं' शोखो से शरारत से भरी हूँ ॥ चेतन हूं निराकार हरबात का ज्ञाता। पर क्या करूं जगबंध से फंदे में फंसा हूं॥ १ ॥ शक्ती है की कर्मों को मैं इकदम में उड़ा दूं । लाचार हूं इस मोह की नागन ने डसा हूं॥२॥ क्या अस्ल है कर्मों को मेरे तेज के आगे । इक छिनके छिनमें ध्यान की अग्नी से जला दूं ॥३॥ अब आन गही न्यायमत जिन शर्ण तुम्हारी । अरदास यही है कि मैं कर्मों से रिहा हूं ॥ ४ ॥ - - - 964. - - - तर्ज ॥ जिया त तो करत फिरत मेरा मेरा॥ . जिया तूने कैसी कुमति कमाई ।। टेक॥ नवदश मास गर्भ में बीते नरक योनि भुगताई। . अंधकूप से बाहर आयो मैल रह्यो तन छाई ।। जिया०॥ १ ॥ बालापन सब खेल गंवायो तरण भयो सुधआई। कामदेव आंखों में छायो पिछली बात बिसराई ॥ जिया०॥२॥ क्रोध मान माया मद राचो जो चारों दुखदाई। जमके दूत लेन जब आवें भूल जावे चतुराई। जिया० ॥३॥ - -
SR No.010208
Book TitleJain Bhajan Shataka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyamatsinh Jaini
PublisherNyamatsinh Jaini
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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