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________________ सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तस्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह ७९ की मात्रा को अल्पतम करते हुए पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध करेंगे, साथ ही वह हमारी अहिंसा विधायक बनकर मानव समाज में सेवा की गंगा भी बहा सकेगी । अनाग्रह (वैचारिक सहिष्णुता ) जैन धर्म में अनाग्रह प्रकाशित है। जो भी जैन दर्शन के अनेकांतवाद का परिणाम सामाजिक नैतिकता के क्षेत्र में वैचारिक सहिष्णुता है । अनाग्रह का सिद्धान्त सामाजिक दृष्टि से वैचारिक अहिंसा है। अनाग्रह अपने विचारों की तरह दूसरे के विचारों का सम्मान करना सिखाता है। वह उस भ्रान्ति का निराकरण करता है कि सत्य मेरे ही पास है, दूसरे के पास नहीं हो सकता । वह हमें यह बताता है कि सत्य हमारे पास भी हो सकता है और दूसरे के पास भी । सत्य का बोध हमें ही हो सकता है, किन्तु दूसरों को सत्य का बोध नह। हो सकता - यह कहने का हमें अधिकार नहीं हैं । सत्य का सूर्य न केवल हमारे घर को प्रकाशित करता है वरन् दूसरों के घरों को भी प्रकाशित करता है । वस्तुतः वह सर्वत्र उन्मुक्त दृष्टि से उसे देख पाता है, वह उसे पा जाता है। सत्य केवल सत्य है, वह न मेरा है और न दूसरे का है । जिस प्रकार अहिंसा का सिद्धान्त कहता है कि जीवन जहाँ कहीं हो, उसका सम्मान करना चाहिए, उसी प्रकार अनाग्रह का मिद्धान्त कहता है कि सत्य जहाँ भी हो, उसका सम्मान करना चाहिए। जैनाचार्य हरिभद्र कहते हैं कि जो स्वार्थ वृत्ति से ऊपर उठ गया है, जो लोकहित में निरत है जो विश्व स्वरूप का ज्ञाता है और जिसका चरित्र निर्मल और अद्वितीय है, वह चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, हरि हो, शंकर हो, मैं उसे प्रणाम करता हूँ। मुझे न जिन के वचनों का पक्षाग्रह है और न कपिल आदि के वचनों के प्रति द्वेष, युक्तिपूर्ण वचन जो भी हो, वह मुझे ग्राह्य है ।" वस्तुतः पक्षाग्रह की धारणा से विवाद का जन्म होता है । व्यक्ति जब स्व-मत की प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करता है, तो परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन में संघर्ष का प्रादुर्भाव हो जाता है। वैचारिक आग्रह न केवल वैयक्तिक नैतिक विकास को कुण्ठित करता है, वरन् सामाजिक जीवन में विग्रह, विपाद और वैमनस्य के बीज बो देता है । सूत्रकृतांग में कहा गया है कि जो अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मत की निन्दा करने में ही अपना पाण्डित्य दिखाने हैं और लोक को सत्य से भटकाने है वे एकान्तवादी स्वयं संसारचक्र में भटकते रहते हैं ।" वैचारिक आग्रह मतवाद या पक्ष को जन्म देता है १. लोकतत्त्व निर्णय १।३७, ३८. २ सयं सयं पसं संता गरहंता परं वयं । जे उ तत्थ विउस्सन्ति संसारे ते विउस्सिया || सूत्रकृतांग १।१।२।२३.
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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