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________________ जैन, बोल बोर गीता का समायवर्शन यह मानना तो ठीक है, लेकिन यह मानना कि मानसिक वृत्ति या कषायों के अभाव में होने वाली द्रव्यहिंसा हिंसा नहीं है, उचित नहीं । यह ठीक है कि संकल्पजन्य हिंसा अधिक निकृष्ट और निकाश्चित कर्म-बंध करती है, लेकिन संकल्प के अभाव में होने वाली हिमा, हिंसा नहीं है या उससे कर्म-आस्रव नहीं होता है, यह जैनकर्म-सिद्धान्त के अनुकूल नहीं है। व्यावहारिक जीवन में हमें इसको हिंमा मानना होगा। इस प्रकार के दृष्टिकोण को निम्न कारणों में उचित नहीं माना जा सकता (१) जैन-दर्शन में आस्रव का कारण तीन योग है-(अ) मनयोग (ब) वचनयोग और (स) काययोग। इनमें से किसी भी योग के कारण कर्मों का आगमन (आस्रव) होता अवश्य है दयहिंसा में काया की प्रवृत्ति है अतः उसके कारण आस्रव होता है। जहाँ मानव है, वहां हिमा है। प्रश्नव्याकरणमत्र में आरव के पांच द्वार (१. हिंसा, २. असत्य, ३. स्तेय, ४. अब्रह्मचर्य ५. परिग्रह) माने गये हैं जिसमें प्रथम आस्रवद्वार हिंसा है। ऐमा कृत्य जिसमें प्राण वियोजन होता है, हिंमा है और दूपित है। यह ठीक है कि कषायों के अभाव में उसमे निकाश्चित कम-बंध नहीं होता है, लेकिन क्रिया दोष तो लगता है। (२) जैन-शास्त्रों में वर्णित पच्चीस क्रियाओं में 'पिपिक' क्रिया भी है। जैनतीर्थकर राग द्वेष आदि कपायों से मुक्त होते हैं, लेकिन काययोग के कारण उन्हें ईर्यापथिक क्रिया लगती है और ईर्यापयिक बंध भी होता है। यदि द्रव्य-हिंसा मानसिक कषायों के अभाव में हिंसा नहा है तो कायिक व्यापार के कारण उन्हें ईर्यापषिक क्रिया क्यों लगती ? इसका तात्पर्य यह है कि हिंसा हिंसा है। (३) द्रव्य हिंसा यदि मानसिक प्रवृत्तियों के अभाव में हिंसा ही नहीं है तो फिर यह दो भेद-भाव हिंसा और द्रव्याहिंसा नहीं रह सकते । (४) वृत्ति और आचरण का अन्तर कोई सामान्य नियम नहीं है । सामान्य रूप से व्यक्ति को जैसी वृत्तियां होती हैं, वैसा ही उसका आचरण होता है। अतः यह मानना कि आचरण का बाह्य पक्ष वृत्तियों से अलग होकर कार्य कर सकता है, एक भ्रान्त धारणा है। पूर्ण माहिसा के मार्श की विशा में यद्यपि आन्तरिक और बाह्य रूप से पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्धि जैन दर्शन का साध्य है, लेकिन व्यवहार के क्षेत्र में इस आदर्श को उपलब्धि सहन नहीं है। अहिंसा एक आध्यात्मिक आदर्श है और आध्यात्मिक स्तर पर ही इसको पूर्ण उपलग्नि सम्भव है. लेकिन व्यक्ति का वर्तमान जीवन अध्यात्म और भोतिकता का एक सम्मिश्रग है । जोवन के आध्यात्मिक स्तर पर पूर्ण अहिंसा सम्भव है, लेकिन भौतिक स्तर पर पूर्ण अहिंसा की कल्पना समीचीन नहीं है। अहिंसक जीवन की सम्भावनाएं भौतिक स्तर से ऊपर उठने पर विकसित
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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