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________________ प्राक्कथन समाज दर्शन दर्शनशास्त्र की एक नवीन शाखा है । प्राचीन दार्शनिक जैसे प्लेटो, अरस्तु आदि ने अपने दार्शनिक चिन्तन में समाज से सम्बन्धित अवधारणाओं, मान्यताओं, नियमों एवं सिद्धान्तों का विवेचन, विश्लेषण एवं मूल्यांकन तो किया है किन्तु उनके दर्शन में समाज दर्शन को एक स्वतंत्र शाखा के रूप में स्थान नहीं मिला है । दर्शन जगत् में इसे स्वतंत्र शाखा के रूप में विकसित हुए अभी बहुत समय नहीं हुआ है फिर भी इसकी आवश्यकता एवं महत्ता के कारण दार्शनिक चिन्तन धाग में इसे एक विशिष्ट स्थान प्राप्त हो गया है । यही कारण है कि अनेक दार्शनिक समाजदर्शन को अपने चिन्तन का मुख्य विषय मानने लगे हैं और इसकी विविध समस्याओं एवं विविध प्रश्नों को लेकर अनेक शोध कार्य एवं स्वतंत्र अध्ययन हो रहे है तथा अनेक ग्रन्थ भी प्रकाशित हो चुके हैं । फिर भी यह कहना पड़ता है कि इन अध्ययनों में पाश्चात्य चिन्तकों एवं दार्शनिकों की दृष्टि को ही विशेष महत्त्व मिला है, भारतीय विचार धारा को आधार मानकर इस विषय पर अभी बहुत कम अध्ययन हुए हैं । भारतीय चिन्तन के साहित्य में समाज दर्शन के विविध पक्षों से सम्बन्धित पर्याप्त सामग्री है किन्तु इस तथ्य को सम्यक् रूप में उद्घाटित करने वाले अध्ययनों की बहुत कमी है। प्रस्तुत ग्रन्थ इस कमी को पूर्ति की दिशा में एक सफल एवं सशक्त प्रयास है। इसमें जैन, बौद्ध एवं गीता के आधार पर समाज दर्शन से सम्बन्धित विविध पक्षों एवं समस्याओं का विवेचन, विश्लेषण एवं मूल्यांकन प्रस्तुत किया गया है। इस ग्रन्थ के लेखक डॉ० सागरमल जैन ( निदेशक, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी) न केवल भारतीय दर्शन के लब्धप्रतिष्ठ पण्डित हैं अपितु पाश्चात्य दर्शन एवं विशेष रूप से समाज दर्शन के भी ख्यातिलब्ध विद्वान् हैं । यह अध्ययन समाज दर्शन के क्षेत्र में नवीन होते हुए भी विद्वतापूर्ण, गम्भीर एवं विचारोत्पादक है । इस अध्ययन के आधार के रूप में जैन, बौद्ध और गोता को लिया गया है, जो स्वतन्त्र रूप से तीन अवस्थाओं एवं तीन परम्पराओं से सम्बन्धित हैं जिनमें भारतीय समाज की समग्रता सन्निविष्ट है । इसलिए यह ग्रन्थ भारतीय समाजदर्शन का समग्र अध्ययन न होते हुए भी इसका प्रतिनिधित्व करने में सक्षम है। भारतीय समाज दर्शन की विषय वस्तु एवं क्षेत्र के समुचित निर्धारण न होने के कारण यह कहना कठिन है कि प्रस्तुत ग्रन्थ में भारतीय समाज दर्शन के समस्त पहलुओं का समावेश हो सका है अथवा नहीं। फिर भी इतना निःसंकोच कहा जा सकता है कि
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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