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________________ जैन, बोड और समाज नहीं देते हैं कि तुम साधना में विकास के किस बिन्दु पर स्थित हो रहे हो, साधना के राज मार्ग पर किम स्थान पर खड़े हो, वरन् इस बात पर जोर देते हैं कि साधना के क्षेत्र में जिम स्थान पर तुम खड़े हो उस स्थान के कर्तव्यों के परिपालन में कितने सतर्क, निष्ठावान् या जागरूक हो । जैन-विचारधारा यह मानती है कि नैतिकता के क्षेत्र में यह बात प्राथमिक महत्त्व को नहीं है कि साधक कितनी कठोर साधना कर रहा है, वरन् प्राथमिक महत्त्व इस बात का है कि वह जो कुछ कर रहा है उसमें कितनी सच्चाई और निष्ठा है। यदि एक साघु जो साधना को उच्चतम भूमिका में स्थित होने हए भी अपने कर्तव्यों के प्रति सतर्क नहीं है, निष्ठावान नहीं है, ईमानदार नहीं है, तो वह उस गृहस्थ साधक की अपेक्षा, जो साधना को निम्न भूमिका में स्थित होते हुए भी अपने स्थान के कर्तव्यों के प्रति निष्ठावान् है, जागरूक है और ईमानदार है, नीचा ही है। नैतिक श्रेष्ठता इस बात पर निर्भर नहीं करतो कि नैतिकसोपान में कोन कहां पर खड़ा है, वरन् इस बात पर निर्भर करती है कि वह स्वस्थान के कर्तव्यों के प्रति कितना निष्ठावान् है । आचारांगमूत्र में स्पष्ट कहा है कि साधक जिस भावना या श्रद्धा से सायना पथ पर अभिनिष्क्रमण कर उसका प्रामाणिकतापूर्वक पालन करें। गीता इसी बात को अत्यन्त संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत करती है कि स्व-क्षमता एवं स्व-स्वभाव के प्रतिकूल एसे सुआचरित* प्रतीत होनेवाले उस परधर्म से, स्व-स्वभाव के अनुकूल निम्नस्तरीय होते हुए भी स्वधर्म श्रेष्ठ है । परधर्म अर्थात् अपने स्वस्वभाव एवं क्षमताओं के प्रतिकूल आचरण सदैव ही भयप्रद होता है और इसलिए स्वधर्म का परिपालन करते हुए मृत्यु का वरण कर लेना भी कल्याणकारी है। स्वधर्म का बाप्यात्मिक बर्ष-गीताकार निष्कर्ष रूप में यह कहता है कि हे पार्थ, तू सब धर्मो का परित्याग कर मेरी शरण में आ, मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा' १. आचाराग, १०१।१।३।२० २. गीता, ३१३५ ३. वही, १८०६६ सिप्पणी प्रस्तुत श्लोक में 'परधर्मात्स्वनुष्ठितात्' का सामान्य अर्थ सुसमाचरित परधर्म से लगाया जाता है, लेकिन परधर्म वस्तुतः सुमनुष्ठित या सुसमाचरित होता ही नहीं है. क्योंकि जो स्वप्रकृति से निकलता है वही सुभाचरित हो सकता है। यहां सुबाचरित कहने का तात्पर्य यही है कि जो बाहर से देखने पर अच्छी तरह आचरित होता दिखाई देता है, यद्यपि मूलतः वैसा नहीं है। हृदय में वासनाओं के प्रबल आवेग के होने पर भी डोंगी साधु साधु-जीवन को बाह क्रियाओं का ठीक रूप से आचरण करता है, कभी-कभी तो वह अच्छे साधु की अपेक्षा भी दिखावे के रूप में उनका अधिक मच्छे ढंग से पालन करता है, लेकिन उसका वह आचरण मात्र बाए दिखावा होता है उसमें सार नहीं होता । उसी प्रकार सुसमाचरित पर-धर्म में सुबाचरण मात्र दिसावा या ढोंग होता है । सुमावरित या सुअनुष्ठित का यहां मात्र यही बर्ष है।
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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