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________________ ४२ जन, बोरबोर गीता सावन स्वीकृत है। बीड-परम्परा और धन-परम्परा दोनों में मात्रम-सिमान्त के सन्दर्भ में समान दृष्टिकोण ही स्वीकृत रहा है। बौद्ध-परम्परा और मामम-सिद्धान्त-बीड-परम्परा भी जैन-परम्परा के दृष्टिकोण के समान ही नाश्रम-सिद्धान्त के सन्दर्भ में विकल्प के सिद्धान्त को स्वीकार करती है। उसके अनुसार संन्यास-आश्रम (अमण-गीवन) ही सर्वोच्च है और व्यक्ति जब भी वैराग्य भावना से युक्त हो जाये, उसे प्रव्रज्या ग्रहण कर लेनी चाहिए। बौद्ध-परम्परा में भी ब्रह्मचर्याश्रम शिक्षण-काल के रूप में, गृहस्थाश्रम गृहस्थ-धर्म के रूप में, वानप्रस्थ मात्रम श्रामणेर के रूप में और संन्यास आश्रम श्रमण-जीवन के रूप में स्वीकृत है। जैन, बोट और वैदिक परम्पराओं का आश्रम-विचार निम्न तालिका से स्पष्ट है:वैदिक-परम्परा जैन-परम्परा बौद्ध-परम्परा १. ब्रह्मचर्याश्रम शिक्षण-काल शिक्षण-काल २. गृहस्थाश्रम गृहस्थ-धर्म गृहस्थ-धर्म ३. वानप्रस्थाश्रम प्रतिमायुक्त गृहस्थ जीवन श्रामणेर दीक्षा या सामायिकचारित्र ४. संन्यामाश्रम छेदोपस्थापनीयचारित्र उपसम्पदा सामान्यतः आश्रम-सिद्धान्त का निर्देश यही है कि मनुष्य क्रमशः नैतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति करता हुआ तथा वासनामय जीवन के ऊपर विजय प्राप्त करता हमा मोक्ष के सर्वोच्च साध्य को प्राप्त कर सके ।
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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