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________________ पालन किस निष्ठा और योग्यता के साथ कर रहा है। गीता के अनुसार यदि एक शह अपने कर्तव्यों का पालन पू. निष्ठा और कुशलता से करता है तो वह अनैष्ठिक मोर अकुशल ब्राह्मण की अपेक्षा नैतिक दृष्टि से श्रेष्ठ है। गीता के प्राचार-दर्शन की भो यह विशिष्टता है कि वह भी जैन-दर्शन के समान साधना पथ का द्वार सभी के लिए बोल देता है। गीता यद्यपि वर्णाश्रम धर्म को स्वीकृत करती है, लेकिन उसका वर्णाश्रम धर्म तो मामाजिक मर्यादा के मन्दर्भ में ही है। आध्यात्मिक विकाम का सामाजिक मर्यादाओं के परिपालन से कोई मीधा सम्बन्ध नहीं है। गीता स्पष्टतया यह स्वीकार करती है कि व्यक्ति मामाजिक दृष्टि से स्वस्थान के निम्नम्तरीय कर्मों का गम्पा. दन करने हुए भी आध्यात्मिक विकाम की दृष्टि से ऊंचाइयों पर पहुंच मकता है। श्री कृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि व्यक्ति चाहे अत्यन्त दुगवारी रहा हो अथवा स्त्री, शूद या वैश्य हो अथवा ब्राह्मण या गर्षि हो, यदि वह मभ्यगंग मेरी उपासना करता है तो वह श्रेष्ठ गति को ही प्राप्त करता है।' इसमे यह स्पष्ट हो जाता है कि गीता के अनुसार आध्यात्मिक विकाम का द्वार मभा के लिए समान रूप मे ग्युटा हुआ है। जो लोग नैतिक या आध्यात्मिक विकास को आचरण के बाग तथ्यों या वैक्तिक जीवन के पूर्वरूप या व्यक्ति के सामाजिक स्वस्थान में बांधने की कोशिश करने हैं, वे भ्रान्ति में है। गीता के आचार-दर्शन के अनुमार मामाजिक म्वम्यान के कर्तव्यों के परिपालन और नैतिक या आध्यात्मिक विकाम के कर्तव्यों में कोई मंघर्ष नहीं क्योंकि दोनों के क्षेत्र भिन्न-भिन्न है। इस प्रकार गीता के अनुमार वर्ण-व्यवस्था का गम्बन्ध सामाजिक कर्तव्यों के परिपालन में है । लेकिन विशिष्ट मामाजिक कर्तव्यों के परिपालन में व्यक्ति श्रेष्ठ या हीन नहीं बन जाता है, उनकी श्रंष्ठता और हीनता का सम्बन्ध तो उसके नैतिक एवं आध्यात्मिक विकाम से है। इस प्रकार जैन, बौद्ध और गीता के आचार-नन वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध में समान दृष्टिकोण रखते हैं। उनके दृष्टिकोण को मंक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता है १. वर्ण का आधार जन्म नहीं वरन् गुण (म्वभाव) और कम है। २. वर्ण अपरिवर्तनीय नहीं है। व्यक्ति अपने स्वभाव, भाचरण और कर्म में परिवर्तन कर वर्ण परिवर्तित कर मकता है। ३. वर्ण का सम्बन्ध सामाजिक कर्तव्यों में है, लेकिन कोई भी सामाजिक कर्तव्य या व्यवसाय अपने आपमें न श्रेष्ठ है, न हीन है । व्यक्ति की श्रेष्ठता और हीनता उसके मामाजिक कर्तव्य पर नहीं, वरन् उसको नैतिक निष्ठा पर निर्भर है। ४. नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास का अधिकार सभी वर्ग के लोगों को प्राप्त है। १. गोता, ९।३०, ३२, ३३
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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