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________________ बांधनयवस्था सकता है, मनुष्यों के सम्बन्ध में नहीं । जन्मना सभी मनुष्य समान है । मनुष्यों को एक हो जाति है।' जन्म के आधार पर जाति का निश्चय नहीं किया जा सकता । मत्स्यगंधा ( मल्लाह की कन्या) के गर्भ में महर्षि पराशर द्वारा उत्पन्न प्रहामुनि ब्याम अपने उत्तम कर्मों के कारण ब्राह्मण कहलाये। मतलब यह कि कर्म या आचरण के आधार पर ही चातुर्वर्ण्य व्यवस्था निर्णय करना उचित है। जिस प्रकार शिल्प-गला का व्यसायी शिल्पी कहलाता है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला बाह्मण कहलाता है। जैन-विचारणा जन्मना जातिवाद का निरसन करती है । कर्मणा वर्ण-व्यवस्था में उसका कोई सैद्धान्तिक विरोध नहीं है। उत्तराध्ययनमूत्र में स्पष्ट रूपमे कहा गया है कि मनुष्य कर्म से ही ब्राह्मण होता है, कर्म से ही क्षत्रिय होता है और कर्म में ही वैश्य और शूद्र होता है। मुनि चौथमल जी निर्ग्रन्थ-प्रवचन भाष्य में कहते हैं कि एक व्यक्ति दुःशील, अजानी और प्रकृति से तमोगुणा होने पर भी अमुक वर्ण वारे के घर में जन्म लेने के कारण समाज में पूज्य, आदरणीय, प्रतिष्ठित और ऊंचा समना जाय, और दूसरा व्यक्ति सुशील, ज्ञानी और मतोगुणो होने पर भी केवल अमुक कुल में जन्म लेने के कारण नाच और तिरस्करणीय माना जाय, गह गवस्था ममाजघातक है। इतना ही नहीं, ऐसा मानन में न केवल समाज के एक बहुसंख्यक भाग का अपमान होता है, प्रत्युत यह सद्गुण और मदाचार का भी घोर अपमान होता है। इस गवम्या को अंगीकार करने में दुराचारी मदाचारी में ऊंचा उठ जाता है, अजान ज्ञान पर विजयी होता है और तमोगुण सतोगुणके सामने आदरास्पद बन जाता है। यह भी स्थिति है जो गुणग्राहक विवकीजनां का मह्य नहीं हो सकती' अर्थात् जाति को अपने आपमं कोई विशेषता नहीं है, महत्त्व नैतिक महाचरण (तप) का है। जैन विचारणा यह तो स्वीकार करती है कि लोक-व्यवहार या आजीविका के हेतु किये गये कम (व्यवमाय) के आधार पर ममाज का वर्गीकरण किया जा सकता है, लेकिन इम भावमायिक या मामाजिक व्यवस्था के क्षेत्र में किये जाने वाले विभिन्न कमों के वर्गीकरण के आधार पर किसी वर्ग को श्रेष्ठता या हीनता का प्रतिपादन नही किया जा मकता । किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता या होनता का आधार व्यावमायिक कर्म नहीं है, वरन् व्यक्ति की नैतिक योग्यता या मद्गुणों का विकाम है। उनराध्ययन में निर्देश है कि माक्षात् तप का ही माहात्म्य दिग्वाई देता है, जाति की कुछ भी विशेपता नहीं दिखाई देती। चाण्डालपुत्र हरिकेगी मुनि को देखो, जिनकी महाप्रभावशाली ऋदि है। इस प्रकार हम देखते है कि जन विचारणा का वर्ण-व्यवस्था के मम्बन्ध में निम्न दृष्टिकोण है। १. वर्ण-व्यवस्या जन्म के आधार पर स्वीकार नहीं की गई वग्न् उसका १. अभिधान राजेन्द्र म्वण्ड ४, पृ० १४.१ ३. निग्रन्थ-प्रवचन-भाष्य, पृ० २८९ २. उनगध्ययन, २५13 ४. उनराध्ययन, १२।३७
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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