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________________ स्वहित बनाम कोकहित २५ स्पष्ट कर देते है कि इस लोकमंगल की साधना में निष्कामता होनी चाहिए । वे लिखते हैं, "जिस प्रकार अपने आपको भोजन कराकर फल को आशा नहीं होती है उसी प्रकार परार्थ करके भी फल की आशा, गर्व या विस्मय नहीं होता है। क्योंकि परार्थ द्वारा हम अपने ही समाजरूपी शरीर की या उसके अवयवों की सन्तुष्टि करते है ) इसलिए एकमात्र परोपकार के लिए ही परोपकार करके, न गर्व करना और न विस्मय और न विपात्रफल की इच्छा हो।" बौद्ध-दर्शन भी आत्मार्थ और परार्थ में कोई भेद नहीं देखता। इतना ही नहीं, वह आत्मार्थ को परार्थ के लिए समर्पित करने के लिए भी तत्पर है । लेकिन उमको एक मीमा है जिसे वह भी उसी रूपमें स्वीकार करता है, जिस रूप में जैन-विचारकों ने उसे प्रस्तुत किया है । वह कहता है कि लोकमंगल के लिए सब कुछ न्योछावर किया जा सकता है, यहां तक कि अपने समस्त संचित पुण्य और निर्वाण का सुख भी। लेकिन वह उसके लिए अपनी नैतिकता को, अपने सदाचार को समर्पित करने के लिए तत्पर नहीं है। नैतिकता और मदाचरण की कीमत पर किया गया लोक-कल्याण उसे स्वीकार नहीं है। एक बौद्ध साधक विगलित शरीरवाली वेश्या की सेवा-गुश्रुषा तो कर सकता है. लेकिन उसकी कामवासना को पूर्ति नही कर सकता। किसी भूख से व्याकुल व्यक्ति को अपना भोजन भले ही दे दे, लेकिन उसके लिए चोर्य कर का आचरण नहीं कर सकता। बोद्ध दर्शन में लोकहित का वही रूप आचरणीय है नो नैतिक जीवन के मीमाक्षेत्र में हो। लोकहित नैतिक जीवन से ऊपर नहीं हो सकता । नैतिकता के ममम्त फलों को लोकहित के लिा मपित किया जा मकता है, लेकिन स्वयं नैतिकता को नहीं । बौद्ध विचारणा में लोकहित के पवित्र माध्य के लिए भ्रष्ट या अनैतिक साधन कथमपि स्वीकार नहीं हैं। लोकहित वहीं तक आचरणीय है जहाँ तक उमका नैतिक जीवन में अविरोध हो । यदि कोई लोकहित ऐसा हो जो व्यक्ति के नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के बलिदान पर ही सम्भव हो, तो ऐसी दशा में वह बहुजन हित आचरणीय नहीं है, वग्न स्वयं के नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की उपलब्धि ही आचरणीय है । धम्मपद में कहा है, व्यक्ति अपने अनुभाचरण से ही अशुद्ध होता है और अशभ आचरण का मेवन नहीं करने पर ही शुद्ध होता है। शुद्धि और अशुद्धि प्रत्येक व्यक्ति की भिन्न-भिन्न है । दूसरा व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को शुद्ध नहीं कर सकता । इसलिए दूसरे व्यक्तियों के बहुत हित के लिए भी अपनी नैतिक शुद्धि रूपी हित की हानि नही करे और अपने मन्चे हित और कल्याण को जानकर उसकी प्राप्ति में लगे।' संभप में बौद्ध आचार-दर्शन में ऐसा लोकहित हो स्वीकार्य है, जिसका व्यक्ति के १. बोधिचर्यावतार, ८।११६ ३. धन्मपद, १६५-१६६ २. वही, ८१०९
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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