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________________ स्वहित बनाम लोकहित २३ बोड-धर्म की महायान शाखा ने तो लोकमंगल के आदर्श को ही अपनी नैतिकता का प्राण माना। वहां तो साधक लोकमंगल के आदर्श को माधना में परममूल्य निर्वाण की भी उपेक्षा कर देता है, उसे अपने वैयक्तिक निर्वाण में कोई मचि नहीं रहती है। महायानी साधक कहता है-दूसरे प्राणियों को दुःख से छुड़ाने में जो आनन्द मिलता है, वही बहुत काफी है। अपने लिए मोक्ष प्राप्त करना नीरम है, उससे हमें क्या लेना देना। ___ लंकावतारसूत्र में बोधिसत्व से यहाँ तक कहलवा दिया गया कि मैं तबतक परिनिर्वाण में प्रवेश नहीं करूंगा जबतक कि विश्व के सभी प्राणी विमुक्ति प्राप्त न कर लें। साधक पर-दुःख-विमुक्ति से मिलनेवाले आनन्द को स्व के निर्वाण + आनन्द से भी महत्त्वपूर्ण मानता है, और उसके लिए अपने निर्वाण सुख को ठुकरा देता है। परदुःख-कातरता और सेवा के आदर्श का इससे बड़ा संकल्प और क्या हो सकता है ? बौद्ध-दर्शन की लोकहितकारी दृष्टि का ग्म-परिपाक तो हमें आचार्य शान्तिदेव के. ग्रन्थ शिक्षासमुच्चय और बोधिचर्यावतार में मिलता है। लोकमंगल के आदर्श को प्रस्तुत करते हुए वे लिखते हैं, 'अपने सुख को अलग रख और दूसरों के दुःख (दूर करने) में लग'। दूसरों का सेवक बनकर इस शरीर में जो कुछ वस्तु देव उमसे दूसरों का हित कर ।' दूसरे के दुःव में अपने मुख को बिना बदल बुद्धन्व की मिद्धि नहीं हो सकती। फिर मंमार में मुख है ही कहाँ ? यदि एक के दुःस्व उठाने में बहत का दुःख नला जाय तो अपने पगये पर कृपा करके वह दुग्न उठाना ही चाहिए । बोधिसत्व को लोकमेवा को भावना का चित्र प्रस्तुत करते हुए आचार्य लिया है, "मैं अनाथों का नाथ बनंगा, यात्रियों का मार्थवाह बनूंगा, पार जाने की इच्छावालों के लिए मैं नाव बनगा, मैं उनके लिए मेतु बनूंगा, घरनियाँ बनूंगा। दीपक चाहने वालों के लिए दीपक बनेंगा, जिन्हें शय्या की आवश्यकता है उनके लिए मैं शय्या बनूंगा, जिन्हे दाम की आवश्यकता है उनके लिए दाम बनूंगा, इस प्रकार मैं जगती के मभी प्राणियों की मेवा करूंगा।' जिस प्रकार पृथ्वी, अग्नि आदि भौतिक वस्न सम्पूर्ण आकाग (विश्वमण्डल) में बमें प्राणियों के मुम्ब का कारण होती है, उसी प्रकार में आकाश के नीचं रहनंयाले सभी प्राणियों का उपजीव्य बनकर रहना चाहता हूं, जब तक कि मभी प्राणी मुक्ति प्राप्त न कर लें। माधना के माथ सेवा की भावना का कितना सुन्दर ममन्वय है ! लोकसेवा, लोककल्याण-कामना के इस महान् आदर्श को देखकर हम बग्बम ही श्री भगतसिंहजी १. बोधिचर्यावतार, ८1१०८ २. लंकावताग्मत्र, ६ ३. बोधिचर्यावतार, ८।१६१ ४. वही, ८३१५९ ५. बही, ८३१३१ ६. वही, ८।१०५ ७. वही, ३०१७-१८ ८. वही, ३३२...१
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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