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________________ २. जन, बोड बोर माता का समापन रहता है। सर्वहित, सर्वोदय और लोक-कल्याण ही उनके जीवन का प्येय बन २. गणपर-सहवर्गीय-हित के संकल्प को लेकर साधना-क्षेत्र में प्रविष्ट होने वाला बार अपनी बाध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर लेने पर भी सहगियों के हित एवं कल्याण के लिए प्रयत्नशील सापक गणधर है । समूह-हित या गण-कल्याण गणधर के जीवन का ध्येय होता है। ३. सामान्य केली-आत्म-कल्याण को ही जिसने अपनी साधना का ध्येय बनाया है और जो इमी आधार पर साधना-मार्ग में प्रवृत्त होता हुआ आध्यात्मिक पूर्णता की उपलब्धि करता है वह मामान्य केवली कहलाता है । मामान्य केवली को पारिभाषिक शब्दावली में मुण्ड-केवली भी कहते हैं। जैनधर्म में विश्वकल्याण, वर्गकल्याण और वैयक्तिक कल्याण की भावनाओं को लेकर तदनुकूल प्रवृत्ति करने के कारण हो साधकों को ये विभिन्न कक्षाएं निर्धारित को गयी है, जिनसे विश्व-कल्याण की प्रवृत्ति के कारण ही तीर्थङ्कर को मर्वोच्च स्थान दिया जाता है। जिस प्रकार बोड-विचारणा में बोधिमत्व और अहंत के आदों में भिन्नता है उमी प्रकार जैन विचारणा में तीर्थङ्कर और मामान्य केवली के आदर्शों में तरतमता है। दूमरे जैन-साधना में संघ (समाज) को सर्वोपरि माना गया है। संघहित समस्त वैयक्तिक माधनाओं से ऊपर है, संघ के कल्याण के लिए वैयक्तिक साधना का परित्याग करना भी आवश्यक माना गया है । आचार्य कालक की कथा इमका उदाहरण है। स्थानांगमूत्र में जिन दस धर्मों (कर्तव्यों) का निर्देश किया गया है, उनमें संघधर्म, राष्ट्रधर्म, नगरधर्म, प्रामधर्म और कुलधर्म का उल्लेख इस बात का सबल प्रमाण है कि जनदृष्टि न केवल आत्महित या वैयक्तिक विकास तक सीमित है, वरन् उसमे लोकहित या लोककल्याण का अबस प्रवाह भी प्रगहित है। __ यद्यपि जैन-दर्शन लोकहित, लोकमंगल की बात कहता है परन्तु उसकी एक शर्त है कि परार्थ के लिए स्वार्य का विसर्जन किया जा सकता है, लेकिन आत्मार्थ का नहीं। उसके अनुमार वैयक्तिक भौतिक उपलब्धियों को लोककल्याण के लिए समर्पित किया जा सकता है और किया भी जाना चाहिए, क्योकि वे हमें जगत् से ही मिली है, वे संसार की ही है, हमारी नही । सांसारिक उपलब्धियां संसार के लिए है, अतः उनका लोकहित के लिए विसर्जन किया जाना चाहिए, लेकिन आध्यात्मिक विकास या ३. वही, २९० । १. योगबिन्दु, २८५-२८८ । ४. निशीपचूर्णि, गा० २८६०। २. वही. २८९ । ५. स्थानांग, १०७६० ।
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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