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________________ १८ जैन, गेड और गोता का समान दर्शन लेकर बेडल, प्रोन, अरबन आदि अनेक समकालीन विचारकों ने भी मानव-जीवन के विभिन्न पक्षों को उभारने हा मामान्य शुभ (कामन गुड) को अवधारणा के द्वारा म्बायंवाद और परार्थवाद के बीच समन्वय मारने का प्रयास किया है । मानव-प्रकृति में विविधता हैं. उममें स्वार्थ और परार्थ के तत्व आवश्यक रूप में उपस्थित है। आचारदर्शन का कार्य यह नहीं है कि वह स्वार्थवाद या परार्थवाद में मे किमी एक सिद्धान्त का ममर्थन या विरोध करे। उमका कार्य ना यह है कि 'अपने' और 'पराये' के मध्य मन्तुलन बैठाने का प्रयाम को अथवा आगर के लक्ष्य को इम म्प में प्रस्तुत करे कि जिममें 'स्व' और 'पर' के बीच मंघों की मम्भावना का निराकरण किया जा सके । भारतीय आचार-दर्शन कहाँ तक और किम कप में स्व और पर के संघर्ष की सम्भावना को समाप्त करने हैं अथवा म्ब और पर के मध्य आदर्श मन्तुलन की संस्थापना करने में मकर होते हैं, इग बात की विवेचना के पूर्व हमें म्वार्थवाद और परार्थवाद की परिभाषा पर भी विचार कर लेना होगा। ___ मंक्षेप में म्वार्थवाद आत्मरक्षण है और परार्थवाद आत्मत्याग है। मैकेन्जी लिखत है कि जब हम केवल अपने व्यक्तिगत माध्य की मिटि चाहते हैं तब इसे स्वार्थवाद कहा जाता है, पगर्थवाद है दुमरे के माध्य की सिद्धि का प्रयाम करना।' नाचार-दर्शन में स्वार्थ और परार्ष-यदि स्वार्थ और पगर्थ को उपर्युक्त परिभाषा म्वीकार की जाय तो जैन, बौद्ध एवं गीता के आचार-दर्शनों में किसीको पूर्णतया न स्वार्थवादी कहा जा सकता है और न परार्थवादी । जैन आचार-दर्शन आत्मा के स्वगुणों के रक्षण की बात कहता है। इस अर्थ में वह स्वार्थवादी है। वह सदैव ही आत्म-रक्षण या स्व-दया का ममर्थन करता है, लेकिन माथ ही वह कषायात्मा या वासनात्मक आत्मा के विमर्जन, बलिदान या त्याग को भी आवश्यक मानता है और इस अर्थ में वह परार्थवादी भी है। यदि हम मैकेन्जी को परिभाषा को स्वीकार करें और यह माने कि व्यक्तिगत माध्य को मिति स्वार्थवाद और दूसरे के साध्य की सिद्धि का प्रयास परार्थवाद है तो भी जैन दर्शन स्वार्थवादी और परार्थवादी दोनों ही सिद्ध होता है। वह व्यक्तिगत आत्मा के मोल या मिद्धि का समर्थन करने के कारण स्वार्थबादी तो होगा ही, लेकिन दूसरे को मुक्ति के हेतु प्रयासशील होने के कारण परार्थवादी भी कहा जायेगा । आत्म-कल्याग, वैयक्तिक बन्धन एवं दुःख से निवृत्ति की दृष्टि से तो जैन-साधना का प्राण आत्महित ही है, लेकिन लोक-करुणा एवं लोकहित को जिस उच्च भावना से बर्हत-प्रवचन प्रस्फुटित होता है उसे भी नहीं भुलाया जा सकता। बन-साधना में लोक-हित-जैनाचार्य समन्तभद्र बोर-जिन-स्तुति में कहते हैं, 'हे भगवन्, आपको यह संघ (समाज)-व्यवस्था सभी प्राणियों के दुःखों का अन्त करने १. नोति-प्रवेशिका, मैकेन्जी (हिन्दी अनुवाद), पृ० २३४ २. बाचारांग १।४।१।१२७-१२९
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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