SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मैन, बोड और गोता का समान दर्शन वस्तुतः मोक्ष अकेला पाने की वस्तु ही नहीं है । इस सम्बन्ध में विनोबा भावे के उद्गार विचारणीय हैं: जो समझता है कि मोक्ष अकेले हथियाने की वस्तु है, वह उसके हाथ में निकल जाता है, 'म' के आने ही मोल भाग जाता है, मेरा मोक्ष यह वाक्य ही गलन है । 'मेरा' मिटने पर ही मोक्ष मिलता है।' इसी प्रकार वास्तविक मुक्ति अहंकार में मुक्ति ही है। 'मैं' अथवा अहं भाव से मुक्त होने के लिए हमें अपने आपको समष्टि में, समाज में लीन कर देना होता है। मुक्ति वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है जो कि अपने व्यक्तित्व को समष्टि में, ममाज में विलीन कर दे । आचार्य शान्तिदव लिखते हैं: सर्वन्यागश्च निर्वाणं निर्वाणापि च मे मनः । त्यक्तव्यं चेन्मया सर्व वरं सत्त्वेषु दीयताम् ।। इस प्रकार यह धारणा कि मोक्ष का प्रत्यय सामाजिकता का विरोधी है, गलत है । मोक्ष वस्तुतः दुःखों से मुक्ति है और मनुष्य जीवन के अधिकांश दुःख, मानवीय संवर्गों के कारण ही है । अतः मुक्ति, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, घृणा आदि के मंवर्गों से मुक्ति पाने में है और इस रूप में वह वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही दृष्टि से उपादेय भी है । दुःख, अहंकार एवं मानसिक क्लेशों से मुक्ति रूप में मोक्ष उपादयता और सार्थकता को अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है । अन्त में हम कह सकते हैं कि भारतीय जीवन दर्शन की दृष्टि पूर्णतया सामाजिक और लोकमंगल के लिए प्रयत्नशील बने रहने को है। उसकी एकमात्र मंगल कामना है: सर्वेऽत्र मुखिनः मन्तु । मर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु । मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात् ।। १. आत्मज्ञान और विज्ञान, १० ७१ २. बोधिचर्यावतार ३३११ ।
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy