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________________ भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना संन्यास में राग से ऊपर उठना आवश्यक है। किंतु इसका तात्पर्य समाज की उपेक्षा नही है । संन्यास को भूमिका में स्वत्व एवं ममत्व के लिए निश्चय ही कोई स्थान नहीं है। फिर भी वह पलायन नहीं, अपितु समर्पण है। ममत्व का परित्याग कर्तव्य की उपेक्षा नहीं है, अपितु कर्तव्य का सही बोध है । संन्यासी उस भूमिका पर खड़ा होता है जहाँ व्यक्ति अपने में समष्टि को और समष्टि में अपने को देखता है। उमको चेतना अपने और पराये के भेद से ऊपर उठ जाती है। यह अपने और पराये के विचार से ऊपर हो जाना समाज विमुखता नहीं है, अपितु यह तो उसके हृदप की व्यापकता है, महानता है । इसलिए भारतीय चिन्तकों ने कहा है: अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतमाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ संन्यास की भूमिका न तो आसक्ति की भूमिका है और न उपेक्षा की। उमकी वास्तविक स्थिति धाय' (नस) के समान ममत्व रहित कर्तव्य भाव की होती है । जैनधर्म में कहा भी गया है: सम दृष्टि जीवड़ा करे कुटुम्ब प्रतिपाल । अन्तर सूं न्यारा रहे जूधाय खिलावे बाल ।। वस्तुतः निममत्व एवं निःस्वार्थ भाव से तथा वैयक्तिकता और स्वार्थ से ऊपर उठकर कर्तव्य का पालन ही संन्यास की सच्ची भूमिका है । सन्यासी वह व्यक्ति है जो लोकमंगल के लिए अपने व्यक्तित्व एवं अपने शरीर को समर्पित कर देता है। वह जो कुछ भी त्याग करता है वह समाज के लिए एक आदर्श बनता है। समाज में नैतिक चेतना को जाग्रत करना तथा सामाजिक जीवन में आने वाली दुःप्रवृत्तियों से व्यक्ति को बचाकर लोकमंगल के लिए उसे दिशा-निर्देश देना संन्यासी का सर्वोपरि कर्तव्य माना गया है । अतः हम कह सकते हैं कि भारतीय दर्शन में संन्याम की जो भूमिका प्रस्तुत की गई है वह सामाजिकता की विरोधी नहीं है। संन्यासी क्षुद्र स्वार्थ से ऊपर उठकर खड़ा हुआ व्यक्ति होता है, जो आदर्श समाज-रचना के लिए प्रयत्नशील रहता है। अब हम मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक उपादेयता पर चर्चा करना चाहेंगे । पुरुषार्थ चतुष्टय एवं समाज भारतीय दर्शन मानव जीवन के लिए अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों को स्वीकार करता है । यदि हम सामाजिक जीवन के सन्दर्भ में इन पर विचार करते हैं तो इनमें से अर्थ, काम और धर्म का सामाजिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है । सामाजिक जीवन में ही इन तीनों पुरुषार्थों की उपलब्धि सम्भव है । अर्थोपार्जन और काम का सेवन तो सामाजिक जीवन से जुड़ा हुआ ही होता है । किन्तु भारतीय चिन्तन में धर्म भी. सामाजिक व्यवस्था और शान्ति के लिए ही है क्योंकि धर्म को 'धर्मों धारयते प्रजाः' के.
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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