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________________ ९२ जैन, बौद्ध और गोता का समाज दर्शन करे । परिग्रह- त्याग अनासक्त दृष्टि का बाह्य जीवन में प्रमाण है। एक ओर विपुल संग्रह और दूसरी ओर अनासक्ति, इन दोनों में कोई मेल नहीं है । यदि मन में अनासक्ति की भावना का उदय है तो उसे बाह्य व्यवहार में अनिवार्य रूप से प्रकट होना चाहिए। अनासक्ति की धारणा को व्यावहारिक रूप देने के लिए गृहस्थ जीवन में परिग्रह - मर्यादा और श्रमण जीवन में समग्र परिग्रह के त्याग का निर्देश है । दिगम्बर जैन मुनि का आत्यन्तिक अपरिग्रही जीवन अनासक्त दृष्टि का सजीव प्रमाण हूँ । अपरिग्रही होते हुए भी व्यक्ति के मन में आसक्ति का तत्त्व रह सकता है, लेकिन इस आधार पर यह मानना कि विपुल मंग्रह को रखते हुए भी अनासक्त वृत्ति का पूरी तरह निर्वाह हो सकता है, समुचित नहीं है । जैन आचारदर्शन में यह आवश्यक माना गया है कि साधक चाहे गृहस्थ हो या श्रमण, उसे अपरिग्रह की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए । हम देखते हैं कि राष्ट्रों एवं वर्गों की संग्रह एवं शोषण - वृत्ति ने मानव जाति को कितने कष्टों में डाला है। जैन आचारदर्शन के अनुमार समविभाग और समवितरण साधना का आवश्यक अंग है । जैन विचारधारा में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि जो समविभाग और समवितरण नहीं करता उसको मुक्ति संभव नहीं है । ऐसा व्यक्ति पापी ही है ।" समविभाग और समवितरण सामाजिक एवं आध्यात्मिक विकास के अनिवार्य अंग हैं। इसके बिना आध्यात्मिक उपलब्धि भी संभव नहीं । अतः जैन आचार्यों ने नैतिक साधना की दृष्टि से अनासक्ति को अनिवार्य माना है । बौद्ध धर्म में अनासक्ति - बौद्धपरम्परा में भी अनासक्ति को समग्र बन्धनों एवं दुःखों का मूल माना गया है । बुद्ध कहते हैं कि तृष्णा के नष्ट हो जाने पर सभी बन्धन स्वतः नष्ट हो जाते हैं । तृष्णा दुष्पूर्य है । वे कहते हैं कि चाहे स्वर्ण मुद्राओं की वर्षा होने लगे, लेकिन उससे भी तृष्णायुक्त मनुष्य की तृप्ति नहीं होती । भगवान् बुद्ध की दृष्टि में तृष्णा ही दुःख है और जिसे यह विषैली नीच तृष्णा घेर लेती है उसके दुःख वैसे ही बढ़ते रहते हैं, जैसे खेतों में वीरण घास बढ़ती रहती है। बौद्धदर्शन में तृष्णा तीन प्रकार की मानी गयी है - १. भवतृष्णा, २. भवतृष्णा अस्तित्व या बने रहने की तृष्णा है, यह या नष्ट हो जाने की तृष्णा है । यह द्वेषस्थानीय है तृष्णा है । रूपादि छह विषयों की भव विभव और कामतृष्णा के आधार पर बौद्ध परम्परा में तृष्णा के १८ भेद भी माने गये हैं । तृष्णा ही बन्धन है । बुद्ध ने ठीक ही कहा है कि बुद्धिमान् लोग उस बन्धन को बन्धन नहीं कहते जो लोहे का बना हो, विभवतृष्णा और ३. कामतृष्णा । रागस्थानीय है । विभवतृष्णा समाप्त । कामतृष्णा भोगों की उपलब्धि की १. उत्तराध्यनन, १७।११; प्रश्नव्याकरण, २१३. ३. संयुत्तनिकाय, २।१२।६६, १।१।६५. २. धम्मपद, १८६. ४. घम्मपद, ३३५.
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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