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________________ सामाजिक मैतिकता के कालोप तस्य : अहिंसा, बनावह बोर अपरिग्रह ८५ ऐसे दृष्टिकोण को आवश्यकता है जो लोगों को आग्रह ओर मतान्धता से ऊपर उठने के लिए दिशा-निर्देश दे मके । भगवान् बुद्ध और भगवान् महावीर दो ऐसे महापुरुष है जिन्होंने इस वैचारिक असहिष्णुता की विध्वंसकारी शक्ति को समझा था और उससे बचने का निर्देश दिया था। वर्तमान में भो धार्मिक, राजनैतिक और सामाजिक जीवन में जो वैचारिक संघर्ष और तनाव उपस्थित है उनका सम्यक समाधान इन्हीं महापुरुषों की विचार सरणो के द्वारा खोजा जा सकता है। आज हमें विचार करना होगा कि बुद्ध और महावीर को अनाग्रह दृष्टि के द्वारा किस प्रकार धार्मिक, राजनैतिक और सामाजिक सहिष्णुता का विकसित किया जा सकता है । धार्मिक सहिष्णुता मभी धर्म-माधना पद्धतियों का मुख्य लक्ष्य राग, आसक्ति, अहं एवं तृष्णा की समाप्ति रहा है । जैन धर्म को मावना का लक्ष्य पोतरागता है, तो बोद्ध धर्म का साधनालक्ष्य वीततृष्ण होना माना गया है। वहीं वेदान्त में अहं ओर आसक्ति से ऊपर उठना हो मानव का माध्य बताया गया है । लेकिन क्या आग्रह वैचारिक राग, वैचारिक आमनि., वैचारिक तृष्णा अथवा वैचारिक अहं का ही रूप नहीं है ? और जब तक वह उपस्थित है धार्मिक मावना के क्षेत्र में लक्ष्य की सिद्धि कैसे होगी ? पुनः जिन साधना पतियों में अहिंसा के आदर्श को स्वीकार किया गया उनके लिए भाग्रह या एकान्त वैचारिक हिंमा का प्रतीक भी बन जाता है। एक ओर माधना के वैयक्तिक पहलू की दृष्टि में मतामह वैचारिक आमक्ति या राग का हो रूप है तो दूसरी ओर साधना के सामाजिक पहलू को दृष्टि में वह वैचारिक हिंसा है । वैचारिक आसक्ति और वैचारिक हिमा में मुक्ति के लिए धार्मिक क्षेत्र में अनाग्रह और अनेकान्त की साधना अपेक्षित है। वस्तुतः धर्म का आविर्भाव मानव जाति में शान्ति ओर अमहयोग के विस्तार के लिए हुआ था। धर्म मनुष्य को मनुष्य में जोड़ने के लिए था, लेकिन आज वही धर्म मनुष्य मनुष्य में विभेद की दीवारें ग्वीच रहा है। धार्मिक मतान्धता में हिंसा, मंघर्ष, छल, छद्म, अन्याय, अत्याचार क्या नहीं हो रहा है ? क्या वस्तुतः इसका कारण धर्म हो सकता है ? इसका उत्तर निश्चित रूप से 'हाँ' में नहीं दिया जा सकता। यथार्थ में 'धर्म' नहीं, किन्तु धर्म का आवरग डालकर मानव की महत्वाकांक्षा, उसका अहंकार, हो यह मब करवाता रहा है । यह धर्म का नकाब ओढ़े अवर्म है। पमं एक या अनेक-मूल प्रश्न यह है कि क्या धर्म अनेक हैं या हो मकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर अनेकान्तिक शैली से यह होगा कि धर्म एक भी है और अनेक भी, साध्यात्मक धर्म या धर्मों का माध्य एक है जब कि मावनात्मक धर्म अनेक है। साध्य रूप में धर्मों की एकता और मावन रूप में अनेकता को ही यथार्थ दृष्टिकोण कहा जा सकता है । सभी धर्मों का माध्य है ममत्व-लाम (समाधि) अर्थात् आन्तरिक तथा बाए
SR No.010203
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Samaj Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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