SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यमान ७७ पाश्चात्य विचारकों में कांट भी यह मानते हैं कि आत्मा का ज्ञान ज्ञाता और ज्ञेय के आधार पर नहीं हो सकता। क्योंकि आत्मा के ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नही रह सकता, अन्यथा ज्ञाता के रूप में वह सदा ही अज्ञेय बना रहेगा। वहाँ तो जो ज्ञाता है वही ज्ञेय है, यही आत्मज्ञान की कठिनाई है। बुद्धि अस्ति और नास्ति की विधाओं से सीमित है, वह विकल्पों से परे नही जा सकती, जबकि आत्मा या स्व तो बुद्धि की विधाओं से परे है । आचार्य कुन्दकुन्द ने उसे नयपक्षातिक्रान्त कहा है । बद्धि की विधाएं या नयपक्ष ज्ञायक आत्मा के आधार पर ही स्थित है । वे आत्मा के समग्र स्वरूप का ग्रहण नही कर सकते । उसे तर्क और बुद्धि से अज्ञेय कहा गया है।' मैं सबको जान सकता हूँ, लेकिन उसी भांति स्वयं को नही जान सकता। शायद इसीलिए आत्मज्ञान जैसी घटना भी दुरुह बनी हुई है। इसीलिए सम्भवतः आचार्य कुन्दकुन्द को भी कहना पड़ा, आत्मा बडी क ठनता से जाना जाता है। निश्चय ही आत्मज्ञान वह ज्ञान नही है जिससे हम परिचित है। आत्मज्ञान में ज्ञाता-ज्ञेय का भेद नही है। इसीलिए उसे परमज्ञान कहा गया है, क्योंकि उसे जान लेने पर कुछ भी जानना शेष नही रहता । फिर भी उमका ज्ञान पदार्थ-ज्ञान की प्रक्रिया से नितान्त भिन्न रूप मे होता है । पदार्थ-ज्ञान मे विषय-विषयी का सम्बन्ध है, आत्मज्ञान में विषय-विषयी का अभाव । पदार्थ ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय होते है लेकिन आत्मज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रहता। वहाँ तो मात्र ज्ञान होता है। वह शुद्ध ज्ञान है, क्योंकि उममें ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय तीनों अलग अलग नही रहतं । इम ज्ञान की पूर्ण गुद्धावस्था का नाम ही आत्मज्ञान है, यही परमार्थज्ञान है । लेकिन प्रश्न तो यह है कि ऐमा विपय और. विषयी से अथवा जाता और ज्ञेय से रहित ज्ञान उपलब्ध कैसे हो? आत्मज्ञान की प्राथमिक विधि भेव-विज्ञान-यद्यपि यह सही है कि आत्मतत्त्व को ज्ञाता-ज्ञेयरूप ज्ञान के द्वाग नही जाना जा सकता, लेकिन अनात्म-तन्व तो ऐमा है जिसे ज्ञाता ज्ञेयरूप ज्ञान का विषय बनाया जा सकता है । मामान्य व्यक्ति भी इम माधारण ज्ञान के द्वारा इतना तो जान सकता है कि अनात्म या उसके ज्ञान के विषय क्या है । अनात्म के स्वरूप को जानकर उसमें विभेद स्थापित किया जा सकता है और इस प्रकार परोक्ष विधि के माध्यम से आत्मज्ञान की दिशा में बढ़ा जा सकता है। मामान्य बुद्धि चाहे हमे यह न बता सके कि परमार्थ का स्वरूप क्या है, लेकिन वह यह तो महज रूप में बता सकती है कि यह परमार्थ नहीं है । यह निषेधात्मक विधि ही परमार्थ बोध की एकमात्र पद्धति है, जिसके द्वारा मामान्य माधक परमार्थबोध की दिशा में आगे बढ़ सकता है। जैन, बौद्ध और वेदान्त की परम्परा मे इस विधि का बहुलता मे निर्देश १. आचारांग, १।५।६ २. मोक्खपाहुड, ६५
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy