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________________ १३० जैन, बौद्ध और गीता का सपना मार्ग स्मरण रखना चाहिए कि जब तक कर्मामक्ति या फलाकाक्षा समाप्त नहीं होती, तब तक केवल कर्ममन्याम मे मुक्ति नहीं मिल मकती । दूसरी ओर यदि माधक अपनी परिस्थिति या योग्यता के आधार पर कर्मयोग के मार्ग को चुनता है तो भी यह ध्यान मे रखना चाहिए कि फलाकांक्षा या आमक्ति का त्याग तो अनिवार्य है। मंक्षेप में, गीताकार का दष्टिकोण यह है कि यदि कर्म करना है तो उसे अनामक्तिपूर्वक करो और यदि कर्म छोडना है तो केवल वाह्य कर्म का परित्याग ही पर्याप्त नहीं है, कर्म की आन्तरिक वामनाओं का त्याग ही आवश्यक है। गीता में वाह्य कर्म करने और छोड़ने का जो विधि-निषेध है वह औपचारिक है, कर्तव्यता का प्रतिपादक नही है । वास्तविक कर्तव्यता का प्रतिपादक विधि-निषेध तो आमक्ति, तृष्णा, ममत्व आदि के सम्बन्ध में है। गीता का प्रतिपाद्य विषय तो समत्वपूर्ण वीतरागदृष्टि की प्राप्ति और आमक्ति का परित्याग ही है । यह महत्वपूर्ण नही है कि मनुष्य प्रवृत्ति-लक्षणम्प गृहस्थधर्म का आचरण कर रहा है या निवृत्ति-लक्षणरूप सन्यामधर्म ग पालन कर रहा है । महन्वपूर्ण यह है कि वह वामनाओ मे कितना ऊपर उठा है, आमक्ति की मात्रा कितने अग में निर्मूल हुई है और ममत्वदृष्टि की उपलब्धि मे उमने कितना विकास किया है। निष्कर्ष-यदि हम इस गहन विवेचना के आधार रूप निवृत्ति का अर्थ राग-द्वेप से अलिप्त रहना माने तो तीनों आचार-दर्शन निवृत्तिपरक ही मिद्ध होते है। जैन दर्शन का मूल केन्द्र अनेकान्तवाद जिम ममन्वय की भूमिका पर विकमित होता है वह मध्यस्थ भाव है और वहीं राग-द्वेष से अलिप्तता है। यही जैन-दृष्टि में यथार्थ निवृत्ति है । पं० सुखलालजी लिखते है, "अनेकान्तवाद जैन तत्त्वज्ञान की मूल नीव है और राग-द्वेष के छोटे-बड़े प्रसंगों मे अलिप्त रहना (निवृत्ति) ममग्र आचार का मूल आधार है। अनेकान्तवाद का केन्द्र मध्यस्थता मे है और निवृत्ति भी मध्यस्थता मे ही पैदा होती है। अतएव अनेकान्तवाद और निवृत्ति ये दोनों एक दूसरे के पूरक एवं पोषक है । ""जैन-धर्म का झुकाव निवृत्ति की ओर है। निवृत्ति याने प्रवृत्ति का विरोधी दूसरा पहलू । प्रवृत्ति का अर्थ है राग-द्वेष के प्रसंगों मे रत होना । जीवन मे गृहस्थाश्रम रागद्वेष के प्रसंगों के विधान का केन्द्र है । अतः जिस धर्म मे गृहस्थाश्रम (राग-द्वेष के प्रसंगों से युक्त अवस्था) का विधान किया गया हो वह प्रवृत्ति-धर्म, और जिम धर्म मे (ऐमे) गृहस्थाश्रम का नहीं, परन्तु केवल त्याग का विधान किया गया हो वह निवृत्ति-धर्म । जैनधर्म निवृत्ति धर्म होने पर भी उसके पालन करनेवालों में जो गृहस्थाश्रम का विभाग है, वह निवृत्ति की अपूर्णता के कारण है । सर्वांश मे निवृत्ति प्राप्त करने में असमर्थ व्यक्ति जितने अंशों मे निवृत्ति का सेवन न कर सके उन अंशों में अपनी परिस्थिति के अनुमार विवेकदृष्टि से प्रवृत्ति की मर्यादा कर सकते हैं, परन्तु उस प्रवृत्ति का विधान जैनशास्त्र
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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