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________________ सम्यक् तप तथा योगमा गं ११७ परिशोधन है, न कि देह- दण्डन । घृत को शुद्धि के लिए घृत को तपाना होता है न कि पात्र को। उसी प्रकार आत्म-शुद्धि के लिए आत्म-विकारों को तपाया जाता है न कि शरीर को । शरीर तो आत्मा का भाजन ( पात्र) होने से तर जाता है, तपाया नहीं जाता । जिम तप में मानसिक कष्ट हो, वेदना हो, पीड़ा हो, वह तप नहीं है। पीड़ा का होना एक बात है और पीड़ा को व्याकुलता की अनुभूति करना दूसरी बात है । तप में पीड़ा हो सकती है लेकिन पीड़ा की व्याकुलता की अनुभूति नहीं । पोड़ा शरीर का धर्म है, व्याकुलता की अनुभूति आत्मा का । ऐमे अनेक उदाहरण हैं जिनमें इन दोनों को अलग-अलग देखा जा सकता है। जैन बालक जब उपवास करता है, तो उमे भूख की पीड़ा अवश्य होगी, लेकिन वह पीड़ा की व्याकुलता को अनुभूति नही करता । वह उपवास तप के रूप में करता है और तप तो आत्मा का आनन्द है । वह जीवन के सौष्ठव को नष्ट नहीं करता, वरन् जीवन के आनन्द को परिष्कृत करता है । पुनः तप को केवल देह दण्डन मानना बहुत बड़ा भ्रम है। देह दण्डन तप का एक छोटा-सा प्रकार मात्र है । 'तप' शब्द अपने आप में व्यापक है । विभिन्न साधनापद्धतियों ने तप की विभिन्न परिभाषाएँ की हैं और उन सबका समन्वित स्वरूप ही तप की एक पूर्ण परिभाषा को व्याख्यायित कर सकता है। संक्षेप में जीवन के शोधन एवं परिष्कार के लिए किये गये समग्र प्रयास तप हैं । यह तप की निर्विवाद परिभाषा है जिसके मूल्यांकन के प्रयास की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती है । जीवन - परिष्कार के प्रयास का मूल्य सर्वग्राह्य है, सर्वस्वीकृत है । इस पर न किमी पूर्ववाले को आपत्ति हो सकती है न पश्चिमवाले को । यहाँ आत्मवादी और भौतिकवादी सभी समभूमि पर स्थित हैं और यदि हम तप की उपर्युक्त परिभाषा को स्वीकृत करके चलने हैं तो निषेधात्मक दृष्टि से तृष्णा, राग, द्वेष आदि चित्त की समस्त अकुटाल ( अशुभ ) वृत्तियों का निवारण एवं विधेयात्मक दृष्टि से मभी कुशल ( शुभ ) वृत्तियों एवं क्रियाओं का सम्पादन 'तप' कहा जा सकता है । भारतीय ऋषियों ने हमेशा तप का विराट् अर्थ में ही देखा है । यहाँ श्रद्धा, ज्ञान, अहिमा, ब्रह्मचर्य, आर्जव, मार्दव, क्षमा, संयम, समावि, मत्य, स्वाध्याय, अध्ययन, सेवा, सत्कार आदि सभी शुभ गुणों को तप मान लिया गया है । अब जैन-परम्परा में स्वीकृत तप के भेदों के मूल्यांकन का किचित् प्रयास किया जा रहा है। अनशन में कितनी शक्ति हो सकती है, इसे आज गाँधी-युग का हर व्यक्ति जानता है । हम तो उसके प्रत्यक्ष प्रयोग देख चुके हैं। सर्वोदय समाज रचना तो उपवास के मूल्य की स्वीकार करती हो है, देश में उत्पन्न अन्न-संकट को समस्या ने भी इस ओर १. गीता, १७।१४-१९
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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