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________________ जन, बोद और गोता न सापना मार्ग या प्रयास के अर्थ में ही ग्रहण करती है और इसी अर्थ में बौद्ध साधना तप का महत्त्व स्वीकार करके चलती है । भगवान् बुद्ध महामंगलसुत्त में कहते हैं कि तप, ब्रह्मचर्य, आर्यमत्यों का दर्शन और निर्वाण का माक्षात्कार ये उत्तम मंगल है। इसी प्रकार कासिभारद्वाजसुत्त में भी तथागत कहते हैं, मैं श्रद्धा का बीज बोता हूँ, उस पर तपश्चर्या की वृष्टि होती है-शरीर वाणी से संयम रखता हूँ और आहार से नियमित रहकर सत्य द्वारा मैं ( मन-दोषों की ) गोड़ाई करता हूँ।२ दिठिवज्जसुत्त में शास्ता कहते हैं, "किसी तप या व्रत के करने से किसी के कुशल धर्म बढ़ते हैं, अकुशल धर्म घटते हैं, तो उसे अवश्य करना चाहिए।"3 बुद्ध स्वयं अपने को तपस्वी कहते हैं-'ब्राह्मण, यही कारण है कि जिससे मैं तपस्वी हूँ।' बुद्ध का जीवन तो कठिनतम तपस्याओं मे भरा हुआ है । उनके अपने माधना-काल एवं पूर्वजन्मों का इतिहास एवं वर्णन जो हमें बौद्धागमों में उपलब्ध होता है, उनके तपोमय जीवन का साक्षी है। मज्झिमनिकाय महासोहनादमुत्त में बुद्ध सारिपुत्त से अपनी कठिन तपश्चर्या का विस्तृत वर्णन करते हैं। इतना ही नहीं, सुत्तनिपात के पवज्जासुत्त में बुद्ध बिबिसार ( राजा श्रेणिक ) में कहते हैं कि अब मैं तपश्चर्या के लिए पा रहा हूँ, उस मार्ग में मेरा मन रमता है । यद्यपि उपर्युक्त तथ्य बुद्ध के जीवन की तप-साधना के महत्त्वपूर्ण साक्ष्य हैं फिर भी यह सुनिश्चित है कि बुद्ध ने तपश्चर्या के द्वारा देह-दण्डन की प्रक्रिया को निर्वाणप्राप्ति में उपयोगी नहीं माना । उसका अर्थ इतना ही है कि बुद्ध अज्ञानमूलक देह-दण्डन को निर्वाण के लिए उपयोगी नहीं मानते थे, ज्ञान-युक्त तप-साधना तो उन्हें भी मान्य पी। श्री भरतसिंह उपाध्याय के शब्दों में भगवान बुद्ध की तपस्या में मात्र शारीरिक यन्त्रणा का भाव बिलकुल नही था, किन्तु वह सर्वथा सुख-साध्य भी नहीं थी। डा. राधाकृष्णन् का कथन है, 'यद्यपि बुद्ध ने कठोर तपश्चर्या की आलोचना की, फिर भी यह आश्चर्यजनक है कि बौद्ध-श्रमणों का अनुशासन किसी भी ब्राह्मण ग्रन्थ में वर्णित अनुशासन ( तपश्चर्या ) से कम कठोर नही है । यद्यपि बुद्ध सैद्धान्तिक दृष्टि से तपश्चर्या के अभाव में भी निर्वाण की उपलब्धि सम्भव मानते हैं, तथापि व्यवहार में तप उनके अनुसार आवश्यक प्रतीत होता है । १. सुत्तनिपात, १६:१० २. वही, ४२ ३. अंगुत्तरनिकाय, दिठिवज्जमुत्त ४. मज्झिमनिकाय-महासीहनादसुत्त ५. सुत्तनिपात, २७।२० ६. बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीयदर्शन, पृ० ४ ७. इण्डियन फिलासफी, भाग १, पृ० ४३६
SR No.010202
Book TitleJain Bauddh aur Gita ka Sadhna Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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