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________________ प्राचार्य चरितावली ११६७ में जिन वल्लभ का स्वर्गवास हुआ और उनके पट्ट पर जिनदत्त सूरि हुए जो वडे प्रभावक थे। तिपागच्छ पट्टावली पृ० १२४ गु०] प्रांचल गच्छ:-विक्रम की तेरहवी सदी मे अधिकतर श्रमण साधु शिथिलाचारी हो गये और अपनी अपनी इच्छा से नयी नयी क्रिया स्वीकार कर अपने २ मत का प्रचार करने लगे। इसी शिथिलाचार के समय मे खरतर, प्राचल, सार्धपौर्णमीय और आगमिक मतों की उत्पत्ति हुई। - पाचल गच्छ की उत्पत्ति का रूप इस प्रकार है जयसिंह मूरि के पास दंतारणां के द्रोण श्रेष्ठी के पुत्र "गोदू" ने दोक्षा स्वीकार को और शनैः शनै. आगमाभ्यास मे वह प्रवीण होने लगा। एकदा दश वैकालिक मूत्र के अर्थ का विचार करते हुए उपाश्रय मे सचित जल के भरे हुए घड़े देखकर वे गुरु से बोले-"भगवन् ! हम श्रमण कहते क्या हैं और करते क्या हैं ?" - गुरु ने कहा- "समय का प्रभाव है।" - गुरु की अनुमति से उन्होने शुद्ध मार्ग अंगीकार किया, जिससे गुरु ने उनको उपाध्याय पद प्रदान कर विजयचन्द्र नाम रखा। - फिर तीन शिप्यो के साथ, गुरु की आज्ञा से उन्होने क्रिया का उद्धार प्रारम्भ किया। सिद्धान्तानुसार उपदेश देते और ४२ दोपरहित आहार मिले तो ही स्वीकार करना ऐसी प्रतिज्ञा की। एक वार शुद्ध आहार नही मिलने से ३० दिन विना आहार के ही,बीत गये फिर भी वे शुद्ध मार्ग से विचलित नहीं हुए। फिर पावागढ जाकर सागारी अनशन स्वीकार किया। कहा जाता है कि उस समय चक्रेश्वरी और पद्मावती देवी सीमंधर स्वामी को नदन करने विदेह क्षेत्र मे गई हुई थी। उन्होने सीमधर स्वामी के मुख से विजयचन्द्र के शुद्वै किनाधारक रूप की प्रशंसा सुनी तो दर्शन करने आई और वदना कर बोली-महाराज ! सीमधर स्वामी ने जैसा कहा, जैसे ही आप है । अत हे पूज्य वर । आप अपने- गच्छ-का-"विधि पक्ष"
SR No.010198
Book TitleJain Acharya Charitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Gajsingh Rathod
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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