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________________ आचार्य चरितावली उज्जैनी में भद्रगुप्त शिवकामी। कहै करो मम सहाय आर्य व्रतधारी ॥लेकर०॥८॥ अर्थ -आर्य रक्षित को दीक्षित कर प्राचार्य तौसलिपुत्र ने स्वल्प समय में ही उसे ११ अग का ज्ञान सिखाया, फिर पूर्वो के ज्ञान मे आगे बढ़ने के लिये आर्य वज्र की सेवा मे भेज दिया क्योकि आर्य वज्र पूर्व ज्ञान के विशिष्ट अभ्यासी थे। इष्ट साधन को जाते हुए मार्ग मे रक्षित ने सुना कि एक अन्य प्राचार्य भद्र-गुप्त उज्जयनी मे अनशन करने को उद्यत है। प्राचार्य के दर्शन करने की इच्छा हुई। रक्षित उन प्राचार्य की सेवा मे पहुँचे । रक्षित को देखकर भद्रगुप्त ' प्राचार्य ने उनसे कहा--"तुम इस : समय मेरी अन्तिम आराधना मे सहयोग करो, फिर आगे जाना" |८०॥ लावरणी।। भद्रगुप्त की सेवा की मनलाई, : काल धर्म आने पर करी विदाई। प्रार्य वज्र से जो तुम ज्ञान, मिलाप्रो, , अन्त सीख पर पृथक् स्थान ठहरायो। आर्य वन ने लिया स्वप्न अवधारी लेकर०॥१॥ अर्थः- आर्य रक्षित ने भी प्राचार्य भद्रगुप्त की वात स्वीकार की और पूरी लगन के साथ उनकी सेवा की । जव आचार्य अनशन मे समाधिपूर्वक आयु पूर्ण कर गये तव इन्होने आगे प्रस्थान किया । अन्तिम समय भद्रगुप्त ने यह सीख दी कि आर्य वज्र से तुम ज्ञान तो प्राप्त करना, पर उनके साथ एक स्थान पर नहीं ठहरना। आर्य वज्र ने भी रात्रि मे एक स्वप्न देखा कि मेरे पात्र मे से कोई दुग्धपान कर रहा है, और उस पात्र में अव स्वल्प ही दुग्ध शेष वचा है ।।८॥ लावरणी।। 'नव्यागत लख पूछा कहाँ से पाया, तौसलिपुत्र की सेवा से चल पाया ।
SR No.010198
Book TitleJain Acharya Charitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Gajsingh Rathod
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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