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________________ १३८ आचार्य चरितावली ७. चन्दपन्नात्त, १४ चन्दपन्नत्ति की टीप . आदि ग्रन्थ भी आप द्वारा प्रणीत किये गये वताये जाते है । आपका सयम काल १६८५ से १७२८ का माना जाता है। आसोज सुद्धि ४ सं० १७२८ को आप स्वर्गवासी हुए। अापके दशम पट्टधर पूज्य श्री प्रागजी के समय मे धर्म का बड़ा उद्योत हुआ । इनके समय मे अहमदावाद मे साधुओं का आना वडा कठिन था। एक समय आप सारंगपुर तलिमा की पोल मे गुलाब चद हीराचन्द के मकान पर ठहरे हुए थे । अापके उपदेश से उस समय कई लोगो ने शुद्ध श्रद्धा धारण की । इससे प्रतिपक्षियो मे ईर्ष्या उत्पन्न हुई। आखिर सं० १८७८ मे कोर्ट मे जोरो से चर्चा शुरू हुई। इस योर से मारवाड के पूज्य श्री रूपचन्दजी के शिष्य जेठ मलजी तथा कच्छ काठियावाड के २८ साधु थे और प्रतिपक्ष मे मूर्ति पूजक सप्रदाय के वीर विजयजी आदि मुनि तथा पंडित थे । सं० १८७८ की पौप सुदि १३ को फैसला हुआ। मुनि श्री जेठमलजी ने युक्तिपूर्वक अपने मत का सवल एवं सम्यक् प्रतिपादन किया और शासन की महिमा को वढाया । अापकी परम्परा खास कर गुजरात की सम्प्रदाय से ही सम्बन्ध रखती है । धर्मसिहजी का दरियापुरी सघाडा आज भी प्रसिद्ध है। दरियापुरी समुदाय की प्राचार्य परम्परा (१) पूज्य श्री धर्मसिहजी महाराज (२) , सोमजी ऋपि , (३), मेघजी कृपि , (6) , द्वारिकादासजी ऋपि महाराज . , मोरारजी. " नाथाजी , , जयचन्दजो "
SR No.010198
Book TitleJain Acharya Charitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Gajsingh Rathod
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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