SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०० आचार्य चरितावली पंचमुनि के निर्णय को स्वीकारा, उभय पक्ष ने मिलकर किया प्राहारा। तीर्थधाम सी नगरी हो गई सारी॥ लेकर० ॥१७३॥ अर्थः - धर्मवीर दुर्लभजी इस सम्मेलन के प्रारण कहे जा सकते थे । उन्होने तन मन से इस मतभेद को सुलझाने का प्रयत्न किया। एक दिन तो उन्होने मुनिराजो से यह अर्ज कर दी कि जब तक आप इस प्रश्न का समुचित हल नहीं निकाल ले तब तक गोचरी-पानी को उठना नही होगा। सेठ वर्द्ध भान जी पीतलिया और दुर्लभजी ने विगडी वात को संभाला। पूज्य जवाहरलालजी महाराज भी अवसर के ज्ञाता थे, उन्होंने अपना मन मार कर प्रमुख चार मुनिराजो पर निर्णय छोड दिया। दोनो पक्षो ने मिल कर पंच मुनियो के फैसले को स्वीकार किया। श्री शतावधानी रत्नचन्द्रजी मल्ने वन्द लिफाफे मे फैसला सुना दिया और दोनो ओर के मुनियो का एक साथ आहार-पानी हो गया । उस समय अजयपाल की राजधानी अजमेर तीर्थधाम वनी हुई थी। || लावणी ॥ उदय गरणी, आत्माराम,युवाचार्य भारी, वाचस्पति खुशहाल विमल मतधारी। बीजमती कुन्दन-पृथ्वी सुखकारी, अमर मुनि भी उनके थे सहकारी । ऋषि अमोल थे दक्षिण देश विहारी ॥लेकर०॥१७४।। अर्थः-सम्मेलन मे आये हुए मुख्य मुनियो का परिचय इस प्रकार है -पंजाव संप्रदाय के वयोवृद्ध गणी उदयचन्दजी, उपाध्याय श्री आत्माराम जी, युवाचार्य काशीरामजी, वाचस्पति श्री मदनलालजी महाराज आदि । बीजमति कुंदनमल जी, फूलचंदजी। महेन्द्रगढ से पृथ्वीचन्दजी महाराज, अमर मुनि जी और दक्षिण विहारी पूज्य अमोलख ऋषि जी, आनन्द ऋषि जी, मोहन ऋपि जी आदि भी पधारे थे ॥१७४।।
SR No.010198
Book TitleJain Acharya Charitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Gajsingh Rathod
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy