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________________ जैन आचार-ग्रन्थ : ७७ बताया गया है। द्वितीय अध्याय पाक्षिकाचार से सम्बन्धित है। तृतीय अध्याय मे नैष्ठिक श्रावक के आचार पर विशेष प्रकाश डाला गया है। चतुर्थ अध्याय मे अणुव्रतपचक की समीक्षा की गई है। पंचम अध्याय शीलसप्तक अर्थात् दिग्नतादि तीन गुणवतो एवं देशावकाशिकादि चार शिक्षानतो से सम्बन्धित है। षष्ठ अध्याय मे श्रावक के आहोरात्रिक आचार पर प्रकाश डाला गया है। सप्तम अध्याय मे सामायिकादि नौप्रतिमाओ का स्वरूप बताया गया है। अष्टम अध्याय मे सल्लेखना की विधि बताई गई है। सागार-धर्मामृत मे श्रावकाचार के पूर्ववर्ती समस्त महत्त्वपूर्ण ग्रथो का सार समाविष्ट किया गया है। इसमे श्रावक का कोई भी आवश्यक कर्तव्य छूटने नहीं पाया है । तृतीय अध्याय मे सप्त व्यसनो के अतिचारों का वर्णन करके ग्रथकार ने सागार-धर्मामृत को एक विशेषता प्रदान की है जो पूर्ववर्ती किसी ग्रथ मे नही पाई जाती। अनगार-धर्मामृत : जिस प्रकार पंडितप्रवर आशाधर के सागार-धर्मामृत मे श्रावकाचार के पूर्ववर्ती समस्त ग्रन्थों का सार समाविष्ट है उसी प्रकार उनके अनगार-धर्मामृत मे श्रमणाचार के पूर्ववर्ती सव। महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का निचोड़ है। अनगार-धर्मामृत नौ अध्यायो मे विभक्त है। पहले अध्याय में धर्म के स्वरूप का निरूपण है। दूसरा अध्याय सम्यक्त्व-सम्यग्दर्शन के उत्पादन से सम्बन्धित है। तीसरे अध्याय मे सम्यग्ज्ञान की आराधना पर प्रकाश डाला
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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