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________________ जैन आचार-ग्रन्थ ७५ विकलचारित्र देशविरत गृहस्थों के होता है। विकलचारित्र के वारह भेद हैं . पाच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । अहिंसादि पाच अणुव्रतों का अतिचारसहित स्वरूप समझाते हुए यह प्रतिपादन किया है कि ये पॉच अणुव्रत तथा मद्य, मास और मधु का त्याग ये पाठ श्रावक के मूलगुण हैं । ओहसादि अणुव्रतों की ही भाति दिग्त्रतादि तीन गुणवतो एवं देशावकाशिकादि चार शिक्षावतो का अतिचारसहित वर्णन किया है। सल्लेखना की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए ग्रंथकार ने संक्षेप मे समाधिमरण की विधि का निर्देश किया है एव सल्लेखना के पाच अतिचार वताये है। अन्त मे श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओ का स्वरूप समझाया गया है। वसुनन्दि-श्रावकाचार : आचार्य वसुनन्दिकृत श्रावकाचार ५४६ गाथाप्रमाण है। इसमे उपासक के छोटे-बड़े सभी कर्तव्यो का वर्णन किया गया है । प्रारम्भ मे आचार्य ने मगलाचरण करते हुए श्रावकधर्म का प्ररूपण करने की प्रतिज्ञा की है। तदनन्तर श्रावक की निम्नोक्त ग्यारह प्रतिमाओ को आधार बनाकर श्रावकाचार का प्रतिपादन किया है : १ दर्शन, २ व्रत, ३ सामायिक, ४. पौषध, ५ सचित्तत्याग, ६ रात्रिभुक्तित्याग, ७ ब्रह्मचर्य, ८ आरम्भत्याग, ९ परिग्रहत्याग, १०. अनुमतित्याग,११. उद्दिष्टत्याग । चूंकि ये प्रतिमास्थान सम्यक्त्व से रहित जीव के नही होते अत. इसके बाद सम्यक्त्व का वर्णन किया गया है एवं
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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