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________________ ७० : जैन आचार जीत-व्यवहार (परम्परा से प्राप्त एव श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा अनुमत व्यवहार ) के आधार पर प्ररूपण किया गया है। सूत्रकार ने बताया है कि सवर और निर्जरा से मोक्ष होता है तथा तप सवर और निर्जरा का कारण है। प्रायश्चित्त तपो मे प्रधान है अतः प्रायश्चित्त का मोक्षमार्ग की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। इसके बाद सूत्रकार ने प्रायश्चित्त के निम्नलिखित दस भेदो का व्याख्यान किया है. १ आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३ उभय, ४ विवेक, ५ व्युत्सर्ग, ६ तप,७ छेद, ८ मूल,९ अनवस्थाप्य, १०. पाराचिक । इन दस प्रायश्चित्तो मे से अन्तिम दो अर्थात् अनवस्थाप्य व पाराचिक अन्तिम चतुर्दशपूर्वधर (प्रथम भद्रबाहु) तक ही विद्यमान रहे । तदनन्तर उनका लोप हो गया। मूलाचारः दिगम्वर परम्पराभिमत आचार-ग्रन्थो मे वट्टकेराचार्यकृत मूलाचार का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसे आचाराग भी कहा जाता है। इस पर आचार्य वसुनन्दी ने टीका लिखी है। इसमे साडेवारह सौ गाथाएं है जो बारह अधिकारो मे विभक्त हैं। इन अधिकारो के नाम इस प्रकार है : १. मूलगुण, २. बृहत्प्रत्याख्यान, ३ सक्षेपप्रत्याख्यान, ४ सामाचार, ५ पचाचार, ६ पिण्डशुद्धि, ७ पडावश्यक, ८ द्वादशानुप्रेक्षा, ९ अनगारभावना, १० समयसार, ११ शीलगुण, १२ पर्याप्ति । मूलगुणाधिकार मे श्रमण के निम्नोक्त २८ मूलगुणो का वर्णन है : पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ, पाँच इन्द्रियो का निरोध, छ आवश्यक, लोच, अचेलकत्व,
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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