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________________ ५८ . जैन आचार उच्चार-प्रस्रवण नामक तृतीय अध्ययन मे मल-मूत्र के त्याग की अहिंसक विधि बतलाई गई है। शब्द नामक चतुर्थ अध्ययन मे विविध वाद्यो, गीतो, नृत्यो, उत्सवों आदि के शब्दो को सुनने की लालसा से यत्र-तत्र जाने का निषेध किया गया है । रूप नामक पंचम अध्ययन मे विविध प्रकार के रूपों को देखने की लालसा का प्रतिषेध किया गया है। षष्ठ अध्ययन परक्रिया मे अन्य द्वारा शारीरिक संस्कार, चिकित्सा आदि करवाने का निषेध किया गया है । सप्तम अध्ययन अन्योन्यक्रिया मे परस्पर चिकित्सा आदि करने-करवाने का प्रतिषेध किया गया है। भावना नामक तृतीय चूला मे पांच महाव्रतो की भावनाओ के साथ ही तदुपदेशक भगवान् महावीर का जीवन भी दिया गया है। विमुक्ति नामक चतुर्थ चूला मे मोक्ष की चर्चा है । मुनि को आंशिक एवं सिद्ध को पूर्ण मोक्ष होता है । समुद्र के समान यह संसार दुस्तर है। जो मुनि इसे पार कर लेते हैं वे अन्तकृत-विमुक्त कहे जाते हैं। इस प्रकार आचाराग सूत्र नि.सदेह भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित आचारशास्त्र का उत्कृष्टतम ग्रंथ है। इसमे अनगारधर्म अर्थात् श्रमणाचार के समस्त महत्त्वपूर्ण पक्षों का सारगर्भित निरूपण है। उपासकदशांग: श्रावकाचार अर्थात् सागारधर्म का प्रतिपादक उपासकदशांग सातवा अंगसूत्र है । इसमे भगवान् महावीर के दस प्रधान उपासको-श्रावको के आदर्श चरित्र दिये गये हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं १. आनन्द, २ कामदेव, ३ चुलनीपिता, ४ सुरा
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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