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________________ जैन दृष्टि से चारित्र-विकास : ४१ मिथ्यादृष्टि जीवो को भी हो सकती है। यही कारण है कि इनसे पतन की भी संभावना रहती है। अन्तिम चार दृष्टियाँ नियमतः सम्यग्दृष्टि को ही होती हैं अत ये अप्रतिपाती है-इनसे पतन कभी नहीं होता । प्रथम चार दृष्टियाँ अस्थिर है जबकि अन्तिम चार स्थिर हैं। मित्रादृष्टि व यम : मित्रादृष्टि योग के प्रथम अंग यम के समकक्ष है। इसमे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, मैथुनविरमण एवं अपरिग्रह रूप पाच यम सामान्यतया विद्यमान होते है। इस दृष्टि मे प्राप्त वोध तृण की अग्नि के समान होता है। जैसे वृणपुंज शीघ्रता से जलकर शीघ्र ही शान्त हो जाता है वैसे ही मित्रादृष्टि मे बोध शीघ्र उत्पन्न होकर शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। यह वोध अति सामान्य प्रकार का होता है। इसमे स्थायित्व जरा भी नही होता । इस दृष्टि का लक्षण 'अखेद' है अर्थात् इस दृष्टि में स्थित व्यक्ति को शुभ कार्य करते ज़रा भी खेद नही होता-अच्छा काम करते तनिक भी दुख नहीं होता। इतना ही नही, वह अशुभ कार्य करने वाले के प्रति 'अद्वेष' वत्ति रखता है अर्थात् बुरा काम करने वाले पर क्रोध न लाते हुए अथवा उससे घृणा न करते हुए उसे दया का पात्र समझता है । इस अद्वेपवृत्ति के कारण उसमे सहिष्णुता उत्पन्न होती है। ताराष्टिव नियम : तारादृष्टि योग के द्वितीय अंग नियम के समकक्ष है। इसमे
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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