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________________ ३८ : जैन आचार है । केवली का अर्थ है केवलज्ञान अर्थात् सर्वथा विशुद्धज्ञान से युक्त । सयोगी का अर्थ है योग अर्थात् कायिक आदि प्रवृत्तियों से युक्त । जो विशुद्ध ज्ञानी होते हुए भी शारीरिक प्रवृत्तियो से मुक्त नही होता वह सयोगी केवली कहलाता है। यह तेरहवा गुणस्थान है। विदेह भक्तिः तेरहवें गुणस्थान में स्थित सयोगी केवली जब अपनी देह से मुक्ति पाने के लिए विशुद्ध ध्यान का आश्रय लेकर मानसिक, वाचिक एवं कायिक व्यापारो को सर्वथा रोक देता है तब वह आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है । आत्मा की इसी अवस्था का नाम अयोगि-केवली गुणस्थान है। यह चारित्र-विकास अथवा आत्मविकास की चरम अवस्था है । इसमे आत्मा उत्कृष्टतम शुक्लध्यान द्वारा सुमेरु पर्वत की तरह निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त कर अन्त मे देहत्यागपूर्वक सिद्धावस्था को प्राप्त होती है। इसी का नाम परमात्म-पद, स्वरूपसिद्धि, मुक्ति, निर्वाण, निर्गुण-ब्रह्मस्थिति, अपुनरावृत्ति-स्थान अथवा मोक्ष है। यह आत्मा की सर्वागीण पूर्णता, पूर्ण कृतकृत्यता एवं परम पुरुषार्थ-सिद्धि है । इसमे आत्मा को अनन्त एवं अव्याबाध अलौकिक सुख की प्राप्ति होती है। जैन गुणस्थान, वौद्ध अवस्थाएँ व वैदिक भूमिकाएँ : जैन दर्शन की तरह अन्य भारतीय दर्शनों ने भी आत्मा के क्रमिक विकास का विचार किया है। यह विचार वैदिक परम्परा
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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