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________________ जैन ३६ : आचार स्थूल कषाय : दृष्ट, श्रुत अथवा भुक्त विषयो की आकांक्षा का अभाव होने के कारण नवे गुणस्थान मे अध्यवसायों की विषयाभिमुखता नही होती अर्थात् भाव पुन. विषयो की ओर नही लौटते । इस प्रकार भावो -अध्यवसायो की अनिवृत्ति के कारण इस अवस्था का नाम अनिवृत्ति - गुणस्थान रखा गया है। इस गुणस्थान मे आत्मा बादर अर्थात् स्थूल कषायो के उपशमन अथवा क्षपण मे तत्पर रहती है अत. इसे अनिवृत्ति - बादर - गुणस्थान, अनिवृत्तिबादर-सम्पराय ( कपाय ) गुणस्थान अथवा बादर- सम्पराय गुणस्थान भी कहा जाता है । सूक्ष्म कपाय : दसवाँ गुणस्थान सूक्ष्म-सम्पराय के नाम से प्रसिद्ध है । इसमे सूक्ष्म लोभरूप कषाय का ही उदय रहता है । श्रन्य कपायो का उपशम अथवा क्षय हो चुका होता है । उपशांत कपाय : जो साधक क्रोधादि कपायो को नष्ट न कर उपशान्त करता हुआ ही आगे वढता है - विकास करता है वह क्रमश: चारित्र - शुद्धि करता हुआ ग्यारहवे गुणस्थान को प्राप्त करता है । इस गुणस्थान मे साधक के समस्त कपाय उपशान्त हो जाते हैं - दब जाते हैं । इसीलिए इसका उपशान्त-कपाय गुणस्थान अथवा उपशान्त-मोह गुणस्थान नाम सार्थक है । इस गुणस्थान मे स्थित
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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