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________________ जैन दृष्टि से चारित्र-विकास आध्यात्मिक विकास को व्यावहारिक परिभाषा मे चारित्रविकास कह सकते हैं। मनुष्य के आत्मिक गुणो का प्रतिबिम्ब उसके चारित्र मे पड़े बिना नही रहता। चारित्र की विविध दशाओं के आधार पर आध्यात्मिक विकास की भूमिकाओं अथवा अवस्थाओं का सहज ही अनुमान हो सकता है। आत्मा की विविध अवस्थाओ को तीन मुख्य रूपो मे विभक्त किया जा सकता है : निकृष्टतम, उत्कृष्टतम व तदन्तर्वर्ती । अज्ञान अथवा मोह का प्रगाढतम आवरण आत्मा की निकृष्टतम अवस्था है। विशुद्धतम ज्ञान अथवा आत्यन्तिक व्यपगतमोहता आत्मा की उत्कृष्टतम अवस्था है। इन दोनो चरम अवस्थाओं के मध्य मे अवस्थित दशाएँ तृतीय कोटि की अवस्थाएँ हैं। प्रथम प्रकार की अवस्था मे चारित्र-शक्ति का सम्पूर्ण ह्रास तथा द्वितीय प्रकार की अवस्था मे चारित्र-शक्ति का सम्पूर्ण विकास होता है। इन दोनों प्रकार की अवस्थाओं के अतिरिक्त चारित्र-विकास की जितनी भी अवस्थाएँ हैं, सबका समावेश उभय चरमान्तर्वर्ती तीसरी कोटि मे होता है। आत्म-विकास अथवा चारित्र-विकास की समस्त अवस्थाओ को जैन कर्मशास्र में चौदह भागो मे विभाजित किया गया है जो 'चौदह गुणस्थान' के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये जैनाचार के चतुर्दश सोपान अर्थात् जैन चारित्र की चौदह सीढियाँ है । साधक को इन्ही सीढियो से चढनाउतरना पडता है।
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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