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________________ २४ , जैन आचार है। इस प्रकार स्याद्वाद व अनेकान्तवाद जैनदर्शनाभिमत सापेक्षवाद के ही दो नाम है। जैनधर्म मे अनेकान्तवाद के दो रूप मिलते है : सकलादेश और विकलादेश । सकलादेश का अर्थ है वस्तु के किसी एक धर्म से तदितर समस्त धर्मों का अभेद करके समग्र वस्तु का कथन करना। दूसरे शब्दो मे वस्तु के किसी एक गुण मे उसके गेप समस्त गुणो का संग्रह करना सकलादेश है। उदाहरणार्थ 'स्यादस्त्येव सर्वम्' अर्थात् 'कथचित् सव है ही' ऐसा जब कहा जाता है तो उसका अर्थ यह होता है कि अस्तित्व के अतिरिक्त अन्य जितने भी धर्म हैं, सब किसी दृष्टि से अस्तित्व से अभिन्न हैं। इसी प्रकार नास्तित्व आदि धर्मों का भी तदितर धर्मों से अभेद करके कथन किया जाता है । यह अभेद काल, आत्मरूप, अर्थ, सम्बन्ध उपकार आदि आठ दृष्टियो से होता है। जिस समय किसी वस्तु में अस्तित्व धर्म होता है उसी समय अन्य धर्म भी होते हैं । घट मे जिस समय अस्तित्व रहता है उसी समय कृष्णत्व, स्थूलत्व आदि धर्म भी रहते हैं । अत. काल की दृष्टि से अस्तित्व व अन्य गुणों मे अभेद है। यही बात शेप सात दृष्टियो के विषय मे भी समझनी चाहिये । वस्तु के स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्व धर्म का विचार किया जाता है एवं परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से नास्तित्व धर्म का। सकलादेश मे एक धर्म मे अशेप धर्मो का अभेद करके सकल अर्थात् सम्पूर्ण वस्तु का कथन किया जाता है । विकलादेश में किसी एक धर्म की ही अपेक्षा रहती है और शेप की उपेक्षा । जिस धर्म का कथन करना होता है वही धर्म दृष्टि के सन्मुख रहता है । अन्य
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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