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________________ जैनाचार की भूमिका : १५ अहिंसावाद, अपरिग्रहवाद एवं अनीश्वरवाद प्रतिष्ठित है। कर्म का साधारण अर्थ कार्य, प्रवृत्ति अथवा क्रिया है। कर्मकाण्डी यज्ञ आदि क्रियाओ को कर्म कहते हैं। पौराणिक व्रत-नियम आदि को कर्मरूप मानते हैं । जैन परम्परा मे कर्म दो प्रकार का माना गया है : द्रव्यकर्म व भावकर्म । कार्मण पुद्गल अर्थात जडतत्त्व विशेष जो कि जीव के साथ मिल कर कर्म के रूप में परिणत होता है, द्रव्यकर्म कहलाता है । यह ठोस पदार्थरूप होता है। द्रव्यकर्म की यह मान्यता जैन कर्मवाद की विशेषता है। आत्मा के अर्थात् प्राणी के राग-द्वेपात्मक परिणाम अर्थात् चित्तवृत्ति को भावकर्म कहते हैं। दूसरे शब्दो मे प्राणी के भावों को भावकर्म तथा भावो द्वारा आकृष्ट सूक्ष्म भौतिक परमाणुओ को द्रव्यकर्म कहते हैं। यह एक मूलभूत सिद्धान्त है कि आत्मा और कर्म का सम्बन्ध प्रवाहत अनादि है। प्राणी अनादि काल से कर्मपरम्परा में पड़ा हुआ है। चैतन्य और जड का यह सम्मिश्रण अनादिकालीन है। जीव पुराने कर्मों का विनाश करता हुआ नवीन कर्मों का उपार्जन करता जाता है। जब तक उसके पूर्वोपाजित समस्त कर्म नष्ट नही हो जाते-आत्मा से अलग नही हो जाते तथा नवीन कर्मो का उपार्जन बद नही होजाता-नया बंध रुक नही जाता तब तक उसकी भवभ्रमण से मुक्ति नही होती। एक बार समस्त कर्मों का नाश हो जाने पर पुन. नवीन कर्मों का आगमन नही होता क्योकि उस अवस्था मे कर्मोपार्जन का कोई कारण विद्यमान नही रहता । आत्मा की इसी अवस्था का नाम मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण अथवा सिद्धि है। इस अवस्था मे आत्मा
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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