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________________ २१४ : जैन आचार रहना अथवा अचेल होकर अचेल के साथ रहना आदि क्रियाएं गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य हैं। प्रत्याख्यान का बार-बार भग करना, गृहस्थ के वस्त्र, पात्र, शय्या आदि का उपयोग करना, प्रथम प्रहर मे ग्रहण किया हुआ आहार चतुर्थ प्रहर तक रखना, अर्धयोजन अर्थात् दो कोस से आगे जाकर आहार लाना, विरेचन लेना अथवा औषधि का सेवन करना, शिथिलाचारी को नमस्कार करना, वाटिका आदि सार्वजनिक स्थानो मे टट्टी-पेशाब डाल कर गंदगी करना, गृहस्थ आदि को आहार-पानी देना, दम्पति के शयनागार मे प्रवेश करना, समान आचारवाले निर्गन्थ-निर्ग्रन्थी को स्थान आदि की 'सुविधा न देना, गीत गाना, वाद्ययन्त्र बजाना, नृत्य करना, अस्वाध्याय के काल में स्वाध्याय करना अथवा स्वाध्याय के काल मे स्वाध्याय न करना, अयोग्य को शास्त्र पढ़ाना अथवा योग्य को शास्त्र न पढाना, अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ को पढ़ाना अथवा उससे पढना आदि क्रियाएं लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य हैं। निशीथ सूत्र के अन्तिम उद्देश मे सकपट आलोचना के लिए निष्कपट आलोचना से एकमासिकी अतिरिक्त प्रायश्चित्त का विधान किया गया है तथा प्रायश्चित्त करते हुए पुन: दोष लगने पर विशेष प्रायश्चित्त की व्यवस्था की गई है। व्यवहार सूत्र के प्रथम उद्देश मे भी इस विषय पर प्रकाश डाला गया है। कही-कही ऐसा भी देखने मे आता है कि एक ही प्रकार के दोष के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रायश्चित्त नियत किये गये हैं।
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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