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________________ श्रमण संघ : २११ लगने वाले दोषो को शुद्धि के लिए आलोचनारूप प्रायश्चित्त का सेवन किया जाता है । आलोचना का अर्थ है सखेद अपराधस्वीकारोक्ति । प्रमाद, आशातना, अविनय, हास्य, विकथा, कन्दर्प आदि दोषो को शुद्धि के लिए प्रतिक्रमणरूप प्रायश्चित्त का सेवन किया जाता है । प्रतिक्रमण का अर्थ है दुष्कृत को मिथ्या करना अर्थात् किये हुए अपराधो से पीछे हटना | अनात्मवशता, दुश्चिन्तन, दुर्भार्पण, दुश्चेष्टा आदि अनेक अपराध आलोचना व प्रतिक्रमण उभय के योग्य 1 अशुद्ध आहार आदि का त्याग करना विवेक प्रायश्चित्त कहलाता है । विवेक का अर्थ है अशुद्ध भक्तादि का विचारपूर्वक परिहार । गमनागमन, श्रुत, स्वप्न आदि से सम्बन्धित दोषो की शुद्धि - के लिए व्युत्सर्ग अर्थात् कायोत्सर्ग किया जाता । कायोत्सर्ग का अर्थ है शरीर की ममता का त्याग । ज्ञानातिचार आदि विभिन्न अपराधो की शुद्धि के लिए एकाशन, उपवास, षष्ठभक्त, अष्टमभक्त आदि तपस्याओ का सेवन - किया जाता है । इसी का नाम तप प्रायश्चित्त है । छेद का अर्थ है दीक्षापर्याय मे कमी । इस प्रायश्चित्त मे विभिन्न अपराधो के लिए दीक्षावस्था मे विभिन्न समय की कमी कर दी जाती है । इस कमी से अपराधी श्रमण का स्थान संघ मे अपेक्षाकृत नीचा हो जाता है । जो तप के गर्व से उन्मत्त है अथवा तप के लिए सर्वथा अयोग्य है, जिसकी तप पर तनिक
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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