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________________ श्रमण-संघ . २०९ दीक्षा: प्रव्रज्या अथवा दीक्षा के विषय मे सामान्य नियम यही है कि साधु स्त्री को तथा साध्वी पुरुप को दीक्षित न करे । यदि किसी ऐसे स्थान पर स्त्री को वैराग्य हुआ हो जहाँ आसपास मे साध्वी न हो तो साधु उसे इस शर्त पर दीक्षा दे सकता है कि दीक्षा देने के बाद उसे यथाशीघ्र किसी साध्वी को सुपुर्द कर दे । इसी शर्त पर साध्वी भी पूरुप को दीक्षा प्रदान कर सकती है। तात्पर्य इतना ही है कि दीक्षा के नाम पर किसी प्रकार से साधु स्त्रीसग के दोष का भागी न बने और साध्वी पुरुषसग के दोप से दूर रहे । इसे ध्यान में रखते हुए दोक्षा देने की औपचारिक विधि किसी भी योग्य निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी द्वारा सम्पन्न की जा सकती है। दीक्षित होने के बाद साधु का निर्ग्रन्थ-वर्ग मे एव साध्वी का निर्ग्रन्थी-वर्ग मे सम्मिलित होना आवश्यक है। निग्रन्थ-निर्ग्रन्थियो को नियमानुसार किसी भी अवस्था मे आठ वर्ष से कम आयु के बालक-बालिकाओ को दीक्षा नहीं देनी चाहिए। दीक्षा के लिए विचारों की परिपक्वता भी आवश्यक है । अपरिपक्व आयु, अपरिपक्व विचार एव अपरिपक्व वैराग्य दीक्षा के पवित्र उद्देश्य की संप्राप्ति मे बाधक सिद्ध होते है । पडक, क्लीव आदि अयोग्य पुरुपो को भी दीक्षा नही देनी चाहिए। प्रायश्चित्त: प्रायश्चित्त का अर्थ है व्रत मे लगने वाले दोषो के लिए समुचित दण्ड । श्रमण-सघ की व्यवस्था सुचारु रूप से चले, इसके
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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