SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 213
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमण-संघ जैन आचारशास्त्र मे स्थविरकल्पिक मुनि के लिए व्रतपालन की भिन्न व्यवस्था की गई है एवं जिनकल्पिक मुनि के लिए भिन्न । जिनकल्पिक मुनि का आचार अति कठोर तपोमय होता है अत. उसे विशेष प्रकार के संगठन अथवा सामूहिक मर्यादाओं मे न वाँध कर एकाकी विचरने की अनुमति दी गई है। वह एकावहारी एवं एकान्तविहारी होकर ही अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। स्थविरकल्पिक के विषय में यह बात नही है। वह एकाकी रह कर संयम का पालन समुचित रूप से नहीं कर सकता। उसकी मानसिक भूमिका अथवा आध्यात्मिक भूमिका इतनी विकसित नही होती कि वह अकेला रह कर सर्वविरत श्रमणधर्म का पालन कर सके। इसलिए स्थविरकल्पिकों के लिए संघव्यवस्था की गई है। सघ से पृथक होकर विचरण करने वाले स्थविरकल्पिको के विपय मे आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पचम अध्ययन मे स्पष्ट कहा गया है कि एकचारी बहुक्रोधी, बहुमानी, बहुमायी एवं वहुलोभी होते हैं। वे 'हम तो धर्म मे उद्यत हैं' ऐसा अपलाप करते हैं। वस्तुत. उनका दुराचरण कोई देख न ले इसलिए वे एकाकी विचरते हैं। वे अपने अजान एव प्रमाद के कारण धर्म को नही जानते । व्यवहार सूत्र के प्रथम उद्देश मे एकलविहारी साधु के विषय मे कहा गया है कि कोई साधु गण का त्याग कर अकेला ही विचरे और बाद
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy