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________________ १९० : जैन आचार मुनि को अपने शरीर से पानी टपकने की स्थिति मे अथवा अपना शरीर गीला होने की अवस्था में आहार पानी का उपभोग नही करना चाहिये । जब उसे यह मालूम हो कि अव मेरा शरीर सूख गया है तव आहार पानी का उपभोग करना चाहिए । पर्युषणा के बाद अर्थात् वर्षा ऋतु के पचास दिन व्यतीत होने पर निर्ग्रन्य-निग्रन्थी के सिर पर गोलोमप्रमाण अर्थात् गाय के बाल जितने केश भी नहीं रहने चाहिए । कैंची से अपना मुण्डन करने वाले को आधे महीने से मुंड होना चाहिए, उस्तरे से अपना मुण्डन करने वाले को एक महीने से तथा लोच से मुड होने वाले को अर्थात् हाथो से बाल उखाड कर अपना मुडन करने वाले को छ. महीने से मुण्ड होना चाहिए । स्थविर ( वृद्ध ) वार्षिक लोच कर सकता है । श्रमण-श्रमणियों को पर्युपणा के बाद अधिकरणयुक्त अर्थात् क्लेशकारी वाणी बोलना अकल्प्य है । पर्युषणा के दिन उन्हे परस्पर क्षमायाचना करनी चाहिए एवं उपशमभाव की वृद्धि करनी चाहिए क्योकि जो उपशमभाव रखता है वही आराधक होता है | श्रमणत्व का सार उपशम ही है अत. जो उपशमभाव नही रखता वह विराधक कहा जाता है | भिक्षु प्रतिमाएँ : प्रतिमा का अर्थ होता है तपविशेष । दशाश्रुतस्कघ के षष्ठ उद्देश मे एकादश उपासक - प्रतिमाओ का तथा सप्तम उद्देश मे
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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