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________________ १८० : जैन आचार जिस मकान में स्त्री, वालक अथवा पशु का निवास हो उनमें श्रमण न रहे क्योकि ऐसा स्थान सहज ही संयम का विराधक बन सकता है | श्रमणी के लिए पुरुपवाला स्थान निषिद्ध है । निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को गृहस्थ के साथ भी निवास नही करना चाहिए क्योकि गृहस्थ तो शुचि- सामाचारयुक्त अर्थात् स्नानादि करने वाले होते हैं जब कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियाँ स्नानादि शौचक्रियाएँ नही करते । इस भेद के कारण गृहस्य को अपने कार्यक्रम मे व्युत्क्रम करना पड़ सकता है । दूसरी बात यह है कि गृहस्थ अपने यहाँ ठहरे हुए निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के निमित्त अनेक प्रकार के आरम्भ समारम्भ मे प्रवृत्त हो सकता है और परिणामतः सयम की विराधना हो सकती है। रात्रि के समय चोरी आदि हो जाने पर वहाँ ठहरे हुए संयमी पर किसी प्रकार का आरोप आ सकता है। कोई-कोई गृहस्थ अपने मकान बड़े इसलिए बनाते हैं कि अवसर आने पर वे भिक्षुप्रो के काम मे आसके । श्रमण श्रमणियों को ऐसे मकानो में नही ठहरना चाहिए । यदि कोई गृहस्थ अपना बना-बनाया मकान श्रमणादि के लिए खाली कर अपने लिए दूसरा मकान बनाने का सोचता है तो साधु-साध्वियों को उसमे ठहरना अकल्प्य है । श्रमण श्रमणी उस घर मे न रहे जिसमे गृहस्थ रहता हो, पानी आदि रखा जाता हो, गृहस्थ के घर मे से होकर रास्ता जाता हो, लोग परस्पर कलह करते हों, स्नान करते हो, मालिश आदि करते हों । चित्रयुक्त स्थान भी त्यागियो के लिए त्याज्य है ।
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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