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________________ १७६ : जैन आचार आहार-पानी की गवेपणा में ही व्यतीत हो जाता है। इसे समय का सदुपयोग नही कह सकते। विशेष परिस्थिति में विवशतावश वैसा करना पड़े तो कोई हर्ज नही। सामान्यतया दिन मे एक बार भोजन करना ही मुनि के लिए श्रेयस्कर है। उत्तराध्ययन के छब्बीसवे अध्ययन (सामाचारी) मे भी इसी सिद्धान्त का समर्थन है। जिनके पास पात्र होते हैं वे भोजन के लिए उनका उपयोग करते हैं । जो पात्र नही रखते अर्थात् पाणिपात्र-करपात्र होते है वे खड़े-खडे अपने हाथो मे ही आहार करते हैं। विहार अर्थात् गमनागमन : निन्थ मुनि वर्षा ऋतु मे एक स्थान पर रहते हैं तथा शेप । ऋतुओ मे पदयात्रा करते हुए स्थान-स्थान पर घूमते रहते हैं। उनकी यह पदयात्रा किस प्रकार निर्दोष एव संयमानुकूल हो, इसका जैन आचार-ग्रथो मे सूक्ष्मतापूर्वक विचार किया गया है। विचरने की अहिंसक विधि कैसी होती है, इस पर जैन आचारशास्त्र मे पर्याप्त ऊहापोह किया गया है। आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की प्रथम चूला के तृतीय अध्ययन मे इस विषय का सुन्दर विवेचन उपलब्ध है। उसमे यह बतलाया गया है कि भिक्षु या भिक्षुणी को जब यह मालूम हो जाय कि वर्षा ऋतु का आगमन हो गया है एव वर्षा के कारण विविध प्रकार के जीवकायो की सृष्टि हो चुकी है तथा मार्गों मे अकुरादि उत्पन्न होने के कारण गमनागमन दुष्कर हो गया है तब वह किसी निर्दोष स्थान पर वर्षावास अर्थात् चात्तुर्मास करके ठहर जाय । जहा स्वाध्याय आदि की अनुकूलता
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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