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________________ श्रमण-धर्म : १७१ आहार का उपयोग : मुनि को सुगन्धित एवं दुर्गन्धयुक्त आहार का समभावपूर्वक उपयोग करना चाहिए । यदि पात्र मे आवश्यकता से अधिक आहार आ गया हो तो साथी सयतियो को पूछे विना उसका । त्याग नही करना चाहिए। उन्हे आवश्यकता होने पर सहर्प दे देना चाहिए। यदि दूसरो का आहार लेना हो तो उनकी अनुमतिपूर्वक ही लेना चाहिए। यदि आहार साधारण हो अर्थात् पूरे समुदाय के लिए हो तो उसका सविभाग अपनी इच्छानुसार न करते हुए साथियो से पूछ कर उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए करना चाहिए। प्राप्त सामग्री को निश्छल भाव से आचायदि को दिखाना चाहिए। जिसमे खाने की सामग्री अल्प तथा फेकने की सामग्री अधिक हो ऐसी वस्तु स्वीकार नही करनी चाहिए । मना करने पर भी यदि ऐसी कोई वस्तु पात्र मे आ ही जाय तो सार भाग खाकर शेष भाग को निर्दोष स्थान देखकर फेक देना चाहिए । शक्कर मांगने पर यदि दाता ने गलती से नमक दे दिया हो तो निर्दोष होने पर उसका यथोचित उपयोग कर लेना चाहिए । अधिक होने पर साथियो को दे देना चाहिए । फिर भी वच जाय तो उसका अचित्त स्थान पर परित्याग कर देना चाहिए । रोगी के लिए आहार यदि इस शर्त पर दिया गया हो कि उसके उपयोग मे न आने की स्थिति मे वापिस कर दिया जाय तो रोगी के अस्वीकृत करने पर उस आहार को तदनुसार लौटा देना चाहिए। इस प्रकार के आहार को अपनी लोलुपता के कारण बीच मे ही खाजाना ठीक नही ।
SR No.010197
Book TitleJain Achar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1966
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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